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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘नहीं चौधरी, वह वहीं पर है। हमने उसका मन्दिर पक्का बनवा दिया है। अन्तर केवल इतना है कि साधु और सन्तू के स्थान पर हम हैं और हम सब निर्णय सोच-विचार कर किया करते हैं।’’

‘‘अभी हमने दो लड़कियों का विवाह नन्दी कबीले वालों के लड़कों से स्वीकार किया है। देवता ने आपत्ति नहीं की। लड़कियाँ प्रसन्न हैं और उस कबीले से हमारी मित्रता हो गई है। हमारी पंचायतें इकट्ठी बैठकर विचार करती हैं।’’

‘‘यह सब तुमने किया है?’’

‘‘यह सब भगवान ने किया है। मैं जब उसका नाम लेकर बात कहता हूँ तो पंच मान जाते हैं और इस प्रकार कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं होता।’’

उत्साहित हो धनिक ने कह दिया, ‘‘मैं अपनी बस्ती में चलूँगा।’’

‘‘यही तो कह रहा हूँ।’’

‘‘पर मैं विचार करता हूँ कि सोना का क्या होगा?’’

‘‘तुम पंचायत के सामने वचन दो कि तुम उसको प्यार से रखोगे और मारोगे नहीं, तो मैं उसको छुड़ाने के यत्न कर सकता हूँ।’’

‘‘कैसे करोगे?’’

‘‘लुमडिंग में एक वकील है। उससे कहकर लिखा-पढ़ी करवाऊँगा।

वह गांधी बाबा को मानने वाला है। वह ही ये सब बातें मुझे बताता है।’’

दो दिन तक उस वकील से बातचीत होती रही। वकील ने जनरल से बात की और फिर सोना से बात की। अन्त में उसने बताया, ‘‘सोना ने सौगन्धपूर्वक बताया है कि वह धनिक के पास रहना नहीं चाहती। वह मिसेज़ माइकल की नौकरी में प्रसन्न है। यदि उसका पति धनिक उसको न मारने का वचन दे तो उसको पुनः नौकर रखा जा सकता है। अब वह जंगल में नहीं जाएगी।’’

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