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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘अर्थात् भगवान का आदेश पंचायत बताती है?’’

‘‘हाँ, सन्तू वहाँ से भाग गया है। वह और साधु दोनों बदमाश थे। उनकी बदमाशी पकड़ी गई थी।’’

चीतू के साथ धनिक लुग्गी के घर पहुँचा। चौधरी को देख लुग्गी चकित रह गई। लुग्गी ने बताया, ‘‘एक दिन बाज़ार में बड़ौज मिला था। उसकी पत्नी बिन्दू को एक पादरी भगाकर ले गया है और वह उसकी खोज में गया है।’’

धनिक लुग्गी की बात सुन विस्मय में मुख देखता रह गया। फिर उसने बताया, ‘‘बिन्दू शिलांग में सोना से मिली थी। सोना को उसके विषय में सन्देह हुआ था, किन्तु बिन्दू से पूछने पर उसने इनकार कर दिया। उसने बताया था कि वह साहब की नौकरी करती है। साहब भला आदमी है और वह उसके साथ कलकत्ता गई है।’’

‘‘बड़ौज तो उसी दिन यहाँ से चला गया था। उसने बताया था कि वह शिलांग जाना चाहता है। उसके पास कुछ था नहीं। मैंने उसे दस रुपए दिए थे।’’

धनिक ने कह दिया, ‘‘मुझे तो कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी नाग जाति का स्त्रीधन ये ईसाई छीनकर ले जाएँगे।’’

चीतू का कहना था, ‘‘हम सब कबीले वाले एक-दूसरे से वैर रखते हैं। एक-दूसरे की सहायता करने की हमारी रुचि नहीं है। साथ ही हममें ऐसे बहुत हैं जो मूर्ख हैं और हमारे कबीलों के पुरोहित जन-साधारण को भड़काते रहते हैं। उनको एक-दूसरे से लड़ाते रहते हैं और इस प्रकार अपना उल्लू सीधा करते हैं।’’

धनिक इन बातों को समझ नहीं सकता था। वह विस्मय में बितर-बितर देख रहा था। चीतू ने अपनी बात समझाते हुए कहा, ‘‘मैंने नदी के इस पार के कबीले वालों की एक बहुत बड़ी पंचायत बुलाई है। अगली पूर्णिमा के दिन वह हमारी बस्ती में होगी। साधु अथवा सन्तू के रहते तो यह हो नहीं सकती थी।

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