उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
|
6 पाठकों को प्रिय 410 पाठक हैं |
नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
उसे जाता देख सोना पूछने लगी, ‘‘कहाँ जा रहे हो?’’
‘‘माँ! अभी आया।’’
इसके लगभग चौथाई घण्टे बाद घायल अवस्था में चौधरी अपने झोंपड़े में आया। उसने आते ही अपनी पत्नी से कहा, ‘‘सोना, शीघ्र ही प्रकाश करो!’’
सोना ने चकमक घिसा, बत्ती जलाई और देखा कि उसके पति के कन्धे से रक्त बह रहा है। उसने तुरन्त आग जलाई और झोंपड़ी के किसी कोने में रखी एक जड़ी निकालकर पानी में उबाल चौधरी के घाव पर बाँध दी।
अभी वह बाँध ही रही थी कि बड़ौज भी लौट आया। उसके हाथ में रक्त रंजित छुरा था। वह पिता को रक्त से लथपथ देख बोला, ‘‘बाबा! अब क्या हाल है?’’
‘‘तुम कहाँ से आ रहे हो?’’
‘‘तुम पर किए आक्रमण का बदला लेकर।’’
‘‘क्या किया है तुमने उसको?’’
‘‘उसका शव नदी में बहा दिया है।’’
‘‘यह तो घोर पाप हो गया है!’’
‘‘नहीं बाबा, उसे उसके किए का फल मिला है। उसके अपने मन का पाप भगवान के नाम पर लगाकर भारी अपराध किया था।’’
‘‘तो भगवान उससे निपट लेता!’’
‘‘उसने ही तो मुझे ऐसा करने के लिए कहा था।’’
‘‘मुझे भय लग रहा है।’’
‘‘चिन्ता न करो बाबा! मैं निपट लूँगा।’’
|