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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


बड़ौज इसका अर्थ नहीं समझ सका। ग्रामोफोन आने के दिन जो सन्देह उसको हुआ था, आज वह परिपक्व हो रहा था। उसको अनिश्चित मन देख बिन्दू ने उसके गले अपनी बाँह डाल और अपनी गाल को उसकी गाल से सटाकर कहा, ‘‘मुझे जाने दो, इससे मैं जीवन-भर तुम्हारी आभारी रहूँगी।’’

बड़ौज जाल में फँस गया। उसने कहा, ‘‘मैं यहाँ अकेला क्या करूँगा?’’

‘‘खाना स्वयं बना लिया करना। मैं तुम्हारा बहुत एहसान मानूँगी। मैं बड़े-बड़े नगर देखना चाहती हूँ।’’

अगले दिन दोनों घोड़ों पर सवार हो चल दिए। बड़ौज मुख देखता रह गया। उसकी वनवासी बस्ती में तो ऐसा सम्भव नहीं था। परन्तु यहाँ की तो रीति ही निराली थी। इस वनवासियों की बस्ती में यूरोप का रहन-सहन आ रहा था। मर्द-औरत इकट्ठे नाचते-गाते और परस्पर मेल-जोल रखते थे। एक की पत्नी दूसरे पुरुष के साथ घूमने में संकोच नहीं करती थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि बड़ौज देख रहा था कि उसकी पत्नी एक स्वर्ग की अप्सरा की भाँति है और वह केवल एक-दो रुपये रोज़ का मज़दूर।

बिन्दू और स्टीवनसन गए तो फिर लौटकर नहीं आए। दो मास की प्रतीक्षा कर उसने गिरजाघर के पादरी से मास्टर स्टीवनसन के विषय में पूछा तो उसे विदित हुआ कि वह तो छः मास के अवकाश पर गया है।

‘‘परन्तु फादर! वह मेरी पत्नी को साथ लेकर गया है।’’

‘‘सत्य! तब तो तुम किसी अन्य से विवाह कर लो। यहाँ बहुत लड़कियाँ हैं।’’

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