उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘हाँ, रोमन कैथोलिक।’’
‘‘यह तो और भी अच्छा है।’’
‘‘क्यों, आप भी रोमन कैथोलिक हैं?’’
‘‘हाँ, और नहीं भी। हमारा चर्च तो यही है, परन्तु हम लोग बेमज़हब हैं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘हमने इस विषय में कभी विचार ही नही किया; फिर कुछ और भी बातें हैं।’’
‘‘वह बताने की नहीं है क्या?’’
‘‘हाँ, मज़हब का सम्बन्ध मनुष्य की अन्तरात्मा से होता है। अभी तक यह ईसाइयत मेरी आत्मा को छू नहीं सकी।’’
‘‘सत्य?’’
इस समय मिस्टर स्टीवनसन नाइट-सूट पर गाउन पहने हुए सोने के कमरे से बाहर निकल आया। बिन्दू ने परिचय करा दिया, ‘‘हियर इज़ माई हसबैंड मिस्टर स्टीवनसन।’’
बड़ौज ने उठकर हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘मैं हूँ बी. जी. बिलमौर। कलकत्ता का रहने वाला हूँ।’’
स्टीवनसन इस नए आने वाले व्यक्ति को बड़े ध्यान से देख रहा था। उसको कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि यह व्यक्ति देखा-भाला है। परन्तु बहुत यत्न करने पर भी ऐसे आधुनिक परिधान में किसी ऐसे व्यक्ति को स्मरण नहीं कर सका, जिसको उसने कहीं देखा हो। इसके अतिरिक्त इस व्यक्ति का अंग्रेज़ी बोलने ढंग सर्वथा ‘ऑक्सोनियन’ था। जब वह बहुत यत्न करने पर भी स्मरण नहीं कर सका तो बैठते हुए उसने कहा, ‘‘मैं विचार कर रहा था कि आपके कहीं दर्शन हुए हैं।’’
|