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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘तो मैं क्या करूँ?’’

‘‘हम आपके अधीन दस कैम्प कर देंगे। आप उनको ही निपटा दें तो ठीक है।’’

वार्डन पाल के समझाने पर डॉक्टर मान गया। उसने अपनी रिपोर्ट फाड़ डाली।

अस्पताल के वे सब घायल जो धनिक की चिकित्सा से ठीक हो गए थे अब दवाई बनाने में लग गए। सोना दो-तीन नागों को साथ ले, जंगल से जड़ी-बूटी एकत्रित करके लाती थी। रात-भर ओषधि तैयार होती थी और अगले दिन सोना की देख-रेख में घायलों पर उसका प्रयोग होता था। डॉक्टर जब तक ब्रेकफास्ट कर अस्पताल में आता, सहस्त्रों रोगियों की मरहम-पट्टी हो चुकी होती। डॉक्टर ने अनुभव किया कि उसके लिए तो दस कैम्प भी नहीं रह गए थे जहाँ उसको चिकित्सा करने का अवसर दिया गया था। जो कुछ रोगी ऐसे थे जिनको अभी तक दवा नहीं मिली थी, वे भी डॉक्टर की दवाई लगवाने के लिए राज़ी नहीं हुए। कुछ ऐसे थे जिनकी हड्डी टूट गई थी। उनकी हड्डी ठीक करने का काम तो एक अन्य घायल करता था।

जब तक चौधरी धनिक की चिकित्सा आरम्भ नहीं हुई थी तब तक नित्य ही लगभग एक सौ रोगी देह छोड़ देते थे। पहले ही दिन मृतकों की संख्या कम हो गई और तीन दिन के निरन्तर परिश्रम के बाद अस्पताल में मृत्यु होनी बन्द हो गई। अधिक बुरी अवस्था के घायल तो पहले ही मर चुके थे।

एक सप्ताह में ही स्थिति वश में आ गई। अब सोफी के कहने पर घायलों को सरकारी धन से अच्छा खाने-पीने को मिलने लगा था। ओषधियों पर व्यय तो शून्य के बराबर ही हो रहा था।

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