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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘रोज करता हूँ।’’ पति अभी पलंग पर लेटा हुआ था। इस समय तक प्रज्ञा उठ स्नानादि कर संध्योपासना कर चुकी थी। उसने पूछ लिया, ‘‘किस समय करते हो? कभी शुक्रिया अदा करते देखा नहीं।’’
‘‘जब भी दुकान पर कोई ग्रहक आता है और कुछ खरीदता है तो मैं उसे रसीद देता हूँ। हमारी प्रत्येक रसीद के नीचे ‘थैंक्यू’ छपा रहता है। हमारे अन्नदाता वे ही तो हैं।’’
‘‘परन्तु वे तो केवल ‘मिडल-मैन’ हैं। उनको भी तो कोई देता है, तभी वे आपको दे जाते हैं।’’
‘‘कौन देता है उनको?’’
‘‘जो इस जमीन-भर के सब मनुष्यो को देता है। देखिये, असली धन है जमीन, हवा पानी वगैरह सब पदार्थ। मेरा मतलब है यह जमीन, पानी, खनिज पदार्थ, सूर्य की किरणें, बादल, मेघ इत्यादि। इनसे ही सब धन-दौलत पैदा होती है और ये कोई इनसान नहीं देता। किसी इनसान में वह ताकत नहीं कि इनको बना सके। जो हमें यह सब देता है, हमें उसका शुक्र-ग़ुजार होना चाहिए।’’
‘‘मैं समझ रहा था कि तुम रुपये-पैसों की बात कर रही हो।’’
‘‘मगर हजरत! रुपया-पैसा तो एक ‘टोकन’ है जो इन वस्तुओं के एवज़ में हम बदलते रहते हैं। वास्तव में ये उन वस्तुओं को ही ज़ाहिर करता है जो हमें नित्य इस्तेमाल करते हैं और जिन्हें परमात्मा देता है। कोई इनसान उनको बना नहीं सकता।’’
‘‘तो यह किसान जो अनाज पैदा करते हैं?’’
‘‘कहाँ से पैदा करते हैं?’’
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