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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘यह तो मैं भी अनुभव करती हूँ। मगर यह पुरुष-स्त्री में कशिश भी एक तरह की प्रेरणा है। जैसे लोहे की चुम्बक के साथ होती है। इस कशिश से दोनों में से एक और कभी-कभी दोनों अपने स्थान से खिसककर एक-दूसरे की ओर खिंच जाते हैं।’’

‘‘कौन कितना खिसकता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कौन दूसरे से कितना भारी अथवा हलका है। अगर चुम्बक भारी है तो लोहा खिंच जाता है और अगर लोहा भारी हो तो चुम्बक खिंचता है।

‘‘कुछ ऐसा समझ आ रहा है कि मैं आपसे अधिक भारी हूँ। इसलिए मेरी ओर आप ज्यादा खिंच रहे हैं।’’

‘‘तो तुम भी अपने स्थान से खिंच रही हो!’’

‘‘जी, मैं यह अनुभव कर रही हूँ। आपसे बातचीत करने के पहले मैं जो थी, उसमें फरक पड़ रहा है।’’

‘‘क्या फरक पड़ रहा है तुममें?’’

‘‘देखिए, यह फरक मुझे खुद दिखाई नहीं दिया मगर मेरी माताजी ने देख लिया था।’’

‘‘उन्होंने मुझे कहा था, ‘तुम वह प्रज्ञा नहीं रहीं जो शादी से पहले थीं। तुम्हारी दिमागी हालत बदल गई है। तुम मांस खाने लगी हो। तुम हिन्दू-मुसलमान में भेदभाव भूल रही हो। तुम्हें अब हिन्दुओं के आचार-विचार की ओर रुचि नहीं रही।’’

‘‘मैं उस वक्त तो चुप रही थी। मगर पीछे विचार करने पर मैं समझ रही हूँ कि फर्क तो आ रहा है। हिन्दुओं में कुछ अमानवता आई है। वह मैं छोड़ती अनुभव कर रही हूँ।’’

‘‘मेरे लिए हिन्दू की औलाद और मुसलमान की औलाद में फरक नहीं रहा। एक ब्राह्मण और एक मुसलमान की सन्तान में फर्क नहीं रहा। दोनों एक ही जमायत के घटक समझ आने लगे हैं।

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