उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘वह मेरे घर में जब आई थीं तो मैंने उनका एलाउन्स दो सौ रुपये महीना तय किया था। यह उनका पाकेट-खर्च है। घर के खर्च के लिए मैं अम्मी को एक हजार रुपये महीना देता हूँ।
‘‘प्रज्ञाजी हर महीने जो कुछ बचाती हैं, वह बैंक में जमा करा देती हैं। बैंक खाते में उन्होंने अपना नाम लिखाया है, प्रज्ञादेवी वाइफ ऑफ ज्ञानस्वरूप।’’
‘‘और आपकी अम्मी मान गई हैं?’’
‘‘पहले तो नहीं मानी थीं। मगर पीछे प्रज्ञाजी ने अम्मी को इस नाम के मायने समझाए तो वह राजी हो गईं और अब वह भी, जब किसी नाम से बुलाना होता है तो ‘ज्ञान’ कहकर पुकारती हैं। उन्हें यह नाम लेना आसान लगता है।’’
‘‘और आप जानते हैं कि ज्ञानस्वरूप के क्या मायने हैं?’’
‘‘हाँ! मैंने शौकिया बी.ए. तक औप्शनल मजबून हिन्दी लिया था। ज्ञान के मायने हैं इल्म; और ज्ञानस्वरूप के मायने हुए इल्म रखने वाला।
‘‘प्रज्ञाजी का कहना है कि वह हैं बुद्धि और मैं हूँ ज्ञान। इस प्रकार एक का दूसरे से मेल है। इसीलिए हम खाविन्द-बीवी हैं।’’
‘‘मगर आप जुबान तो फारसी बोलते हैं।’’
‘‘मैं इसके लिए शर्मिन्दा हूँ। वालिद शरीफ के घर में फारसी बोली जाती है। मेरी अपनी अम्मी पंजाब की रहने वाली हैं और दूसरी अम्मियों में एक अल्मोड़ा की और एक कश्मीर की हैं। ये तीनों ही अनपढ़ औरतें वही जुबान बोलने लगी हैं जो मेरे वालिद साहब बोलते हैं। वह फारसी के आलम-फाजिल हैं। इसीलिए हमारे घर की बोली फारसी है।’’
इस समय तक चाय खत्म हो चुकी थी। प्रज्ञा ने अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही कहा, ‘‘दादा! तुम विवाह कर भाभी को नहीं लाए, इसका मुझे अजहद अफसोस है।’’
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