उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
जब डाक्टर विष्णुसहाय आए तो ड्राइंगरूम में रविशंकर और उसका लड़का शिव पहले ही बैठे थे। डाक्टर साहब के आने के दो मिनट उपरांत ही उमा भी आ गया।
महादेवी मेहमानों के लिए भोज का प्रबन्ध करवा रही थी। विष्णु सहाय ने बैठते ही पूछा, ‘‘सैक्रेटरी साहब! कब से हमारी मित्रता है?’’
‘‘ठीक याद नहीं। मैं तब शिक्षा-विभाग में एक सुपरिण्टेडेंट था। तबसे आपसे परिचय और धीरे-धीरे मित्रता हो गई है।’’
‘‘मैं बताता हूँ।’’ डाक्टर विष्णुसहाय ने बताया, ‘‘मैंने डाक्टर की उपाधि प्राप्त की थी सन् १९५० में और तब ही आपसे परिचय हुआ था।’’
‘‘डिग्री प्राप्त कर मैं हनुमानजी के मन्दिर में लड्डू चढ़ाने गया था और आपने मुझे पहचान लिया था। पीछे आप मुझसे पूछने लगे थे कि क्या डाक्टर की उपाधि प्राप्त करने पर भी इस मन्दिर में आने की आवश्यकता है?’’
‘‘मेरा उत्तर था–हाँ! मैंने कारण भी बताया था। आप समझे अथवा नहीं समझे, पता नहीं; परन्तु हम दोनों में मित्रता बनने लगी। इसे आज बीस वर्ष हो चुके हैं और हम नियमपूर्वक प्रति मंगल के दिन इकट्ठे लड्डू चढ़ाने जाया करते हैं।’’
‘‘मगर रविशंकर जी! जो बात मैं कह रहा हूँ, वह यह है कि इतनी लम्बी मैत्री के उपरांत आज आपने पहली बार मुझे भोजन पर आमंत्रित किया है। कारण तो टेलीफोन पर ही पूछना था, परन्तु टेलीफोन पर आपका पुत्र था। इस कारण उससे पूछने का साहस नहीं कर सका। मैं तो आपके मन की प्रतिक्रिया जानना चाहता था।’’
‘‘इसलिए अब पूछ रहा हूँ। यह क्या अवसर है जो इस पढ़े-लिखे किताबों के कीड़े को याद किया है?’’
रविशंकर अपने मन की बात बताने ही वाला था कि प्रज्ञा इत्यादि आ गये। उनके साथ ही महादेवी भी बाहर ड्राइंगरूम में आ गई।
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