उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘तो पिताजी! ऐसा करिए, मैं घर से बाहर ही भोजन का प्रबन्ध कर देता हूँ। बताइए, आप कहाँ भोजन करेंगे? मैं सबके भेजन का प्रबन्ध वहीं कर दूँगा।’’
‘‘परन्तु मैं तुम सबसे पृथक् भोजन करना चाहता हूँ।’’
‘‘परन्तु हम और प्रज्ञा इत्यादि आपके साथ बैठ कर भोजन करना चाहते हैं और इसी बात का आश्वासन मैं उनको दे आया हूँ।’’
‘‘यह मुझसे पूछे बिना तुमने कैसे किया है?’’
‘‘देखिये पिताजी! आप जहाँ भी जायेंगे, हम सब वहीं भोजन करने पहुँच जायेंगे।’’
‘‘पर मैं तुमको बताऊँगा ही क्यों, कि मैं कहाँ भोजन करूँगा।’’
‘‘इस पर भी मैं जान लूँगा और आपके पीछे-पीछे हम सब वहाँ जा पहुँचेंगे।’’
‘‘तो ठीक है करो।
यह उमाशंकर को चुनौती थी। उमाशंकर इसे इन्हीं अर्थों में समझता था। उसने अगले दिन शिवशंकर से राय की। उसने कहा कि उसकी परीक्षा शनिवार को समाप्त हो रही है और वह शनिवार और रविवार की मध्य रात्रि से ही पिताजी पर पहरेदारी करने लगेगा।
रविवार के दिन शिव प्रातः चार बजे ही स्नानादि से अवकाश पा मकान के बाहर आ बैठा। जब महादेवी शौचादि के लिए बाथरूम में गई हुई थी, रविशंकर कपड़े पहन कमरे से बाहर निकला तो कोठी के गेट पर शिव को खड़ा देख वह विस्मित रह गया। पिता ने पूछा, ‘‘यहाँ क्या कर रहे हो?’’
‘‘आपके साथ प्रातः भ्रमण को जाने के लिए खड़ा हूँ।’’
‘‘पर मैं भ्रमण के लिए नहीं जा रहा?’’
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