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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘मैं तो यह कहती हूँ कि मेरी मान्यता का आधार युद्धि और बुद्धि है। इन लोगों की मान्यता का आधार श्रद्धा है, जिसे आप लोग एतकाद कहते हैं।’’

‘‘विवाद श्रद्धा और युक्ति में है। मैं श्रद्धा को कम उपयोगी समझती हूँ।’’

‘‘हमारे देश में एक महात्मा गांधी हो गये हैं और वह कह गये हैं कि एक मन भर युक्ति से एक तोला भर श्रद्धा भारी है, मतलब यह है कि अधिक मानने योग्य है। इसे मैं गलत समझती हूँ।’’

‘‘होना यह चाहिए कि युक्ति से सिद्ध वस्तु पर श्रद्धा रखो। अभिप्राय यह है कि दृढ़तापूर्वक आचरण करने से कल्याण की आशा की जा सकती है। परन्तु महात्मा गांधी के कहने का अर्थ तो यह प्रतीत होता है कि युक्ति और श्रद्धा परस्पर विरोधी स्थितियाँ हैं। जहाँ विरोधी हो, वहाँ दोनों में से एक मिथ्या होगी ही।’’

‘‘ऐसी अवस्था में भी मैं युक्ति को प्रधानता देती हूँ क्योंकि यह गलत हो तो इसके ठीक होने का द्वार सदा खुला रहता है और श्रद्धा में तो द्वार बन्द रहता है। जब श्रद्धा मिथ्या विचार पर बने तो भयंकर परिणाम उत्पन्न होते हैं।’’

‘‘श्रद्धा एक बन्द गली है और युक्ति एक खुला राजमार्ग है।’’

‘‘तो तुम्हारे पिता अब दलील के काबिल हो गए हैं?’’ सरस्वती का प्रश्न था।

‘‘आज के उनके व्यवहार से तो यही कहा जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आज मध्याह्न के समय दादा उमाशंकर ने पिताजी को समझाया है और उन्होंने बात समझकर हमारा आदर-सत्कार किया है।’’

‘‘अम्मी! अक्ल की जीत हुई है।’’ कमला का कहना था।

‘‘यदि कर्म करने से पूर्व और अन्त में सदैव कुछ बुद्धि का प्रयोग कर लिया जाए तो कठिनाई नहीं रहती।’’

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