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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


इसके लिये बहुत प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। शिव अभी अपने भावी जीवन की योजना बताने ही लगा था कि रविशंकर ड्राइंगरूम में दाखिल होते हुए पूछने लगा, ‘‘तो सब भोजन कर चुके हैं?’’

महादेवी हँस पड़ी।

‘‘आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं?’’ उमाशंकर ने मुस्कराते हुए कह दिया।

‘‘तो तुम समझ रहे थे कि मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा।’’

‘‘पर हम तो समझते हैं,’’ महादेवी ने कहा, ‘‘आपके भाग जाने में कोई कारण ही नहीं था। किसी बाहरी व्यक्ति के घर में आने पर अपने घर को छोड़ जाने में कोई कारण प्रतीत नहीं होता। यह समझ से बाहर की बात है।’’

रविशंकर हँस पड़ा। हँसते हुए उसने कहा, ‘‘मैं नाराज़गी प्रकट कर रहा था। वास्तव में मुझे क्रोध भी नहीं था। योजनाबद्ध ढंग से मैं उसे यहाँ से भगा देने का यत्न कर रहा था। सामने के मोड़ के पीछे छुपा हुआ मैं देख रहा था कि वे जाती हैं अथवा नहीं। जब मैंने देखा कि वे तीनों अपने घर को लौट गयी हैं तो मैं वापस आ गया हूँ।’’

इस पर सब हँसने लगे। पिता ने समझा कि पत्नी और लड़के उसकी चतुराई पर प्रसन्न हो हँसने लगे हैं। वास्तव में वे पिता के बचपना पर हँसे थे।

महादेवी ने कहा, ‘‘अब चलिये! भोजन ठण्डा हो रहा है।’’

सब उठकर खाने के कमरे में चले गए और भोजन करने लगे।

भोजन से तृप्त हो गये तो महादेवी ने सेवक से कह दिया, ‘‘कॉफी बाहर ड्राइंग रूम में ले आओ।’’

सब हाथ धो ड्राइंगरूम में आकर बैठे तो उमाशंकर ने कह दिया, ‘‘पिताजी तो सरकारी पैंशन-याफ्ता व्यक्ति हैं। परन्तु मेरी अभी पेंशन नहीं लगी। मैं अभी पेंशन पाने की योग्यता संचय करने का यत्न कर रहा हूँ। इस अवस्था में पिताजी! मैं जरा-जरा-सी बात पर नाराज नहीं हो सकता। इस कारण मैं आज उसके यहाँ से अपमानित कर निकाल दिए जाने के लिए उससे क्षमा माँगने जाऊँगा।’’

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