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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘तुम परमात्मा को मानती हो अथवा खुदा को?’’
‘‘ये भाषा-भेद की बात की जा रही है। दोनों में कोई अन्तर नहीं है।’’
‘‘पर मैं तो हनुमानजी पर लड्डू चढ़ाता हूँ।’’
‘‘पिताजी! दिल्ली में अनेक हैं जो दिनानुदिन सरकारी अफसरों को रिश्वत देते रहते हैं। आप भी तो यही कुछ कर रहे हैं। परमात्मा से सीधा सम्पर्क न रखकर परमात्मा के भक्त के द्वारा यश और कीर्ति की इच्छा करते हैं।’’
‘‘हमारा सम्बन्ध सीधा परमात्मा से होने लगा है। इस कारण इन बीच-बिचौर्लौं की आवश्यकता नहीं रही।’’
‘‘परन्तु यह तो सब जानते हैं कि मिनिस्टर साहब को मिलने के लिए उनके सेक्रेटरी को ‘टिप’ करना पड़ता है।’’
‘‘पिताजी! वह इसलिए कि अफसर कमरे से बाहर नहीं होता। वह परमात्मा की भाँति सब स्थान पर उपस्थित नहीं होता। इस कारण परमात्मा को बीच-बिचौले की आवश्यकता नहीं होती। यह तो आप भी मानते हैं कि परमात्मा सर्वव्यापक है। जब वह मन्दिर से बाहर भी है तो फिर मन्दिर में जाने की क्या आवश्यकता है?’’
‘‘तुम कहाँ से हमारे घर में नास्तिक पैदा हो गई हो?’’
‘‘देह तो माताजी ने ही बनाई है। अक्ल कुछ आपने दी है, कुछ स्कूलों कालिजों के मास्टरों और प्राध्यापकों ने सिखाई है और सबसे अधिक सांख्य और वेदान्त दर्शनों से सीखी है।’’
ये सब बातें रविशंकर की पहुँच से दूर थीं। इस कारण उसने पत्नी को कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी मेरे बस की बात नहीं है। इनको भीतर ले जाओ और खूब खिला-पिला कर विदा करना। मैं तनिक मिस्टर बोस से एक राय करने जा रहा हूँ।’’
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