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बिखरे मोती
बिखरे मोती
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2009 |
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 7135
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आईएसबीएन :9781613010433 |
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सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समय यत्र तत्र लिखी गई कहानियाँ
अब कोतवाल साहब अपने दफ्तर के काम में लग गये। आफ़िस पहुँचते ही उनका रोज की ही तरह कुड़कुड़ाना शुरू हो गया। कोतवाली में काम बहुत रहता है। बड़ा शहर है, दिन भर काम करते-करते पिसे जाते हैं। एड़ी-चोटी का पसीना एक हो जाता है। खाने तक की फुरसत नहीं मिलती। चौबीसों घंटे गुलामी बजानी पड़ती है, तब कहीं तीन सौ रुपट्टी मिलते हैं। तीन सौ में होता ही क्या है? आजकल तो पाँच सौ से कम में कोई इज़्ज़तदार आदमी रह ही नहीं सकता। इसी के लिए झूठ-सच, अन्याय-अत्याचार क्या-क्या नहीं करना पड़ता? पर उपाय भी तो कुछ नहीं है। इस छै फुट के शरीर को क़ायम रखने के लिए पेट में तो कुछ झोंकना ही पड़े। क्या ही अच्छा होता, यदि भगवान पेट न बनाता।
इन्हीं विचारों में समय हो गया और कोतवाल साहब ठीक ११ बजे गवाही देने के लिए जेल को चल दिये।
लाठी-चार्ज का हुक्म देने के बाद ही मजिस्ट्रेट राय साहब कुन्दनलाल जी को बड़े साहब का एक अर्जेन्ट रुक्का मिला। साहब ने उन्हें फौरन बँगले पर बुलाया था। इधर लाठी चार्ज हो ही रहा था कि उधर वे मोटर पर सवार होकर बड़े साहब के बँगले पहुँचे। काम की बातों के समाप्त हो जाने पर, उन्हें लाठी-चार्ज कराने के लिए धन्यावाद देते हुए बड़े साहब ने इस बात का भी आश्वासन दिया कि राय बहादुरी के लिए उनकी सिफ़ारिश अवश्य की जायगी। बड़े साहब का उपकार मानते हुए राय साहब कुन्दनलाल अपने बँगले लौटे। उन निहत्थों पर लाठी चलवाने के कारण उनकी आत्मा उन्हीं को कोस रही थी हृदय कहता था कि ‘यह बुरा किया। लाठी चार्ज बिना करवाये भी काम चल सकता था। आख़िर सभा हो ही जाती तो अमन में क्या खलल पड़ जाता? वे लोग सभा में किसी से मारपीट करने तो आये न थे। फिर मैंने ही उन्हें लाठी से पिटवा कर कौन-सा भला काम कर डाला?’ किन्तु दिमाग़ ने उसी समय रोककर कहा—‘यहाँ भले-बुरे का सवाल नहीं है, तुमने तो अपना कर्त्तव्य पालन किया है। स्वयं भगवान् कृष्ण ने कर्तव्य के लिए निकट सम्बन्धियों तक को मारने का उपदेश अर्जुन को दिया था, फिर तुम्हारा कर्तव्य क्या है? अपने अफ़सर की आज्ञा का पालन करना। आतंक जमाने के लिए लाठी चार्ज कराने का तुम्हें हुक्म था। तुम सरकार का नमक खाते हो, उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते। आज्ञा मिलने पर उचित-अनुचित का विचार करने की जरूरत ही नहीं। स्वयं धर्म-नीति के ज्ञाता पितामह भीष्म ने दुर्योधन का नमक खाने के ही कारण, अर्जुन का पक्ष सत्य होते हुए भी, दुर्योधन का ही साथ दिया था। इसी प्रकार तुम्हें भी अपना कर्त्तव्य करना चाहिए, नतीजा बुरा हो चाहे भला।’
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