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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।14।।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।15।।

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होनेवाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।।14-15।।

इस ब्रह्माण्ड में जीवन के लिए अन्न अर्थात् वनस्पति, जल और मृदा आदि की आवश्यकता पड़ती है। अन्न की उत्त्पत्ति के लिए वृष्टि की आवश्यकता पड़ती है। यज्ञ करके ज्ञानी जन वृष्टि का आह्वान करते हैं। ज्ञान के विकास क्रम में जिस समय मनुष्य को कर्म का महत्व समझ आता है, उसी समय से कर्म में यज्ञ का भाव आरंभ हो जाता है। कर्मों का उद्भव ब्रह्म से हुआ है, परंतु ब्रह्म स्वयं अक्षर होकर हर क्षण, समय और काल में सभी चराचरों के लिए समान रूप से उपलब्ध है। यह ब्रह्म सभी चराचरों के भीतर है, दूसरे शब्दों में इस ब्रह्म के कारण ही यह चराचर जगत् कल था, आज है, और भविष्य में रहेगा। यज्ञ इसी ब्रह्म के कारण संसार में प्रतिष्ठित है। बृ प्रत्यय का प्रयोग विस्तार के लिए होता है, और अहम् का अर्थ है मैं। इस प्रकार अहम् के अपरिमित विस्तार को ब्रह्म कहते हैं। इसी प्रकार क्षर शब्द का अर्थ होता है जीर्ण होना अथवा क्षय होना, इस प्रकार ‘अ’ प्रत्यय को लगाकर अक्षर शब्द बनता है जो कि विपरीतार्थी है। इस प्रकार जो कभी क्षय नहीं होता और जिसका विस्तार अपरिमित है, वह ही अक्षर ब्रह्म है।

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