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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय परमवाप्स्यथ।।11।।
तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।।11।।

देवताओं के साथ अनेन अर्थात् एकीभाव का अनुभव करो और देवता तुमसे एकीभाव को अनुभव करें। इस प्रकार सहज भाव से मनुष्य और देवता एक दूसरे के साथ एकीभूत् होकर परम कल्याण की अवस्था को प्राप्त हों। मुख्य देवता, जैसे सूर्य, अग्नि, अनिल, वरुण और इन्द्र जिनके कारण इस ब्रह्माण्ड में विभिन्न कार्य हो रहे हैं, इन्हीं की समुचित अनुपात में उपलब्धि के कारण ही इस धरती पर जीवन संभव हो सका है। इस जीवन की उच्चावस्था मनुष्य के रूप में ही अभिव्यक्त हुई है। भगवान् कहते हैं, कि मनुष्य के जीवन संचालन में इन सभी देवताओं का निर्विकल्प योगदान है। इसलिए मनुष्यों को इन देवताओं की समृद्धि के लिए सद्भाव भावित होकर यज्ञ करने चाहिए, ताकि इन सभी देवताओं से पोषित होकर मनुष्यों का सतत् कल्याण हो सके।

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