लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

महर्षि वेदव्यास

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 61
आईएसबीएन :00000000

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

23333 पाठक हैं

(यह पुस्तक वेबसाइट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है।)

हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य* है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये तू शोक करने के योग्य नहीं है।। 30।। (* जिसका वध नहीं किया जा सके।)

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।31।।


तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।।31।।

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।32।।


हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं।।32।।

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।33।।


किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।।33।।

अकीर्तिं चापि भूतानि
कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-
र्मरणादतिरिच्चते।।34।।


तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है।।34।।

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।35।।


...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book