मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 1 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 1महर्षि वेदव्यास
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भगवद्गीता की पृष्ठभूमि। मानसिक समस्याओं की उहापोह से छुटकारा पाने के लिए आरंभ यहीं से किया जाता है।
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाच्चैव किमकुर्वत संजय।।
मामकाः पाण्डवाच्चैव किमकुर्वत संजय।।
धृतराष्ट्र बोले- हे संजय ! धर्मभूमि कुरूक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डुके पुत्रों ने क्या किया ? ।। 1।।
इस श्लोक से व्यासजी हमें महाभारत की मानवीय सम्बन्धों की उलझनों और समस्याओं से निकाल कर गीता के अध्यात्म में प्रवेश करवाते हैं। रामायण अपने चौबीस हजार से श्लोकों और महाभारत अपने एक लाख श्लोकों से महाकाव्य के नाम से सर्वविदित हैं। महाभारत का गंभीर विषय हमारा अपना जीवन ही है, अर्थात् मानव जीवन के सभी संभावित, अविवादित और विवादित दोनों प्रकार के विषयों और उनके मानव जीवन पर पड़ने वाले नाना प्रकार के प्रभावों का गहन विवेचन्। भगवद्गीता महाभारत का ही एक अंश है, जिसमें कुल सात सौ श्लोक आते हैं। महाभारत के पाठक जानते हैं कि धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे। उनका अंधापन केवल शारीरिक न हो कर वरन् मानसिक एवं बौद्धिक भी था। धृतराष्ट्र का यही मानसिक अंधापन यह जानते हुए भी कि वे स्वयं अंधे होने के कारण राजा होने के योग्य नहीं है, क्योंकि तत्कालीन समय के राजा को कभी भी युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व करना पड़ सकता था। अंधा व्यक्ति युद्ध में अपनी ही सेना के लिए गंभीर समस्या का कारण बन सकता था! वह समय प्रजातांत्रिक व्यवस्था का होता तब संभवतः धृतराष्ट्र राजा बनने के योग्य माने जा सकते थे। अब जब वे ही राजा नहीं बन सकते तो उनके पुत्र का कोई अधिकार सिद्ध नहीं होता है, फिर भी धृतराष्ट्र का मन दुर्योधन को राजा बनाने का अभिलाषी हो जाता है। धृतराष्ट्र का बौद्धिक अंधापन ही है, जो यह जानते हुए भी कि वे सही मार्ग पर नहीं है और उनके समय के सबसे अधिक सक्रिय राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक ही नहीं, बल्कि सुदूर प्रातों में केवल अपने बौद्धिक और मानसिक बल पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने वाले श्रीकृष्ण भी पाँडवों का साथ दे रहे हैं, अपने पुत्रों की असंभावित विजय की आकांक्षा करते हैं। वे धृतराष्ट्र जो कि स्वयं भीष्म की संरक्षता में पले-बढ़े थे, यह भूल जाते हैं, कि धर्म (कुरु कुल की रक्षा का) और राष्ट्र की रक्षा के लिए ही भीष्म ने धृतराष्ट्र और पाण्डु के पिता और चाचा के अशक्त होते हुए भी कुरुकुल की रक्षार्थ उन्हें मूर्त रूप देकर राज्य का संचालन किया था। भीष्म को भी संभवतः यह समझ में आ सकता है कि उन्होंने साधन को ही साध्य बनाने की त्रुटि की है, अतः हो सकता है कि युद्ध क्षेत्र में वे अपनी त्रुटि सुधारने का प्रयास करें और पाण्डवों के विरुद्ध युद्ध में दुर्योधन की मनोकामना पूरी करने में अपनी समग्र शक्ति न लगाएँ। इस प्रकार की प्रबल संभावनाओं के होते हुए भी उनकी बुद्धि उन्हें यह नहीं समझा पाती कि उनका निर्णय अनुचित ही नहीं आत्म-घातक भी है। परंतु मन और बुद्धि की यह विस्मयकारी क्रीड़ा वयष्क होते-होते हम सभी अपने जीवन में कई-कई बार देख चुके होते हैं। मानते हम भी नहीं हैं, बुद्धि सही मार्ग दिखा भी रही हो तो भी हम अपने मन के आगे हार जाते हैं, और न करने वाले कितने ही ऐसे कार्य करते भी हैं, और पछताते भी हैं। इसी संशय में आकंठ डूबे हुए जब धृतराष्ट्र आकुल होते हैं, तो इसी काव्य के रचियता व्यास धृतराष्ट के सारथी संजय को वह दिव्य दृष्टि केवल उतने समय के देते हैं जब तक कि युद्ध चलने वाला है। ऐसा क्यों, युद्ध के पश्चात क्यों नही? इसका एक उत्तर यह भी हो सकता है कि इतना सब देख लेने के बाद संजय स्वयं ही अन्य कुछ नहीं देखना चाहेंगे। गीता के इस पहले श्लोक में धृतराष्ट्र संजय से पूछ रहे हैं कि अपने-अपने कर्मों से प्रेरित होकर युद्ध के लिए प्रवृत्त मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? आज के समय में जिस प्रकार खेलों का विवरण देने वाला उद्घोषक अपने सुनने वाले अथवा दर्शकों में रुचि बढ़ाने के लिए जिस प्रकार दोनों पक्षों के खिलाड़ियों की तैयारी और निर्णायकों की उपस्थिति तथा दर्शकों की संख्या, उस समय का तापमान, सूर्य का प्रकाश और बादलों की उपस्थिति आदि की जानकारी देता है, उसी प्रकार संजय कौरवों और पाण्डवों के सेनानियों, रथियों और महारथियों की आदि की जानकारी देता है। ऐसा माना जा सकता है कि संजय ऐसी अपेक्षा रखता हो कि योद्धाओं का विवरण और उनकी युद्ध क्षमता आदि का विवरण सुनकर संभवतः धृतराष्ट्र अभी भी चेत जायें और इस विनाशकारी युद्ध को रोकने की घोषणा कर दें। ऐसा न भी हो तो यह तो कहा ही जा सकता है कि व्यासजी अपने पाठकों में कथा के मानवीय अनुभवों के प्रति ध्यान आकृष्ट करना चाहते हों।
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