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श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 4471
आईएसबीएन :0

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


चौ.-दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना।1।।

अलग कुछ दूरी पर वह सुन्दर घाट है, जहाँ घोड़ों और हाथियों के ठट्ट-के-ठट्ट जल पिया करते हैं। पानी भरने के लिये बहुत-से [जनाने] घाट हैं, जो बड़े ही मनोहर हैं; वहाँ पुरुष स्नान नहीं करते।।1।।

राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर।।
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपवन सुंदर।।2।।

राजघाट सब प्रकारसे सुन्दर और श्रेष्ठ हैं, जहाँ चारों वर्णोंके पुरुष स्नान करते हैं। सरयूजीके किनारे-किनारे देवताओंके मन्दिर हैं, जिनके चारों ओर सुन्दर उपवन (बगीचे) हैं।।2।।

कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि सन्यासी।।
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।3।।

नदी के किनारे कहीं कहीं विरक्त और ज्ञानपरायण मुनि और संन्यासी निवास करते हैं। सरयूजीके किनारे-किनारे सुंदर तुलसी के झुंड-के-झुंड बहुत से पेड़ मुनियों ने लगा रक्खे हैं।।3।।

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