मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।
सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गुंजत अलि लै चलि मकरंदा।।2।।
सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गुंजत अलि लै चलि मकरंदा।।2।।
पक्षी कूजते (मीठी बोली बोलते) हैं,
भाँति-भाँतिके पशुओंके समूह वनमें
निर्भय विचरते और आनन्द करते हैं। शीतल, मन्द, सुगन्धित पवन चलता रहता है।
भौंरे पुष्पोंका रस लेकर चलते हुए गुंजार करते जाते हैं।।2।।
लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्रवहीं।।
ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी।।3।।
ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी।।3।।
बेलें और वृक्ष माँगने से ही मधु (मकरन्द)
टपका देते हैं। गौएँ मनचाहा दूध
देती हैं। धरती सदा खेती से भरी रहती है। त्रेता में सत्ययुगकी करनी
(स्थिति) हो गयी।।3।।
प्रगटी गिरिन्ह बिबिधि मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी।।
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।4।।
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।4।।
समस्त जगत् के आत्मा भगवान् को जगत् का राजा
जानकर पर्वतों ने अनेक
प्रकार की मणियों की खाने प्रकट कर दीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल
और सुखप्रद स्वादिष्ट जल बहने लगीं।।4।।
सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।
सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा।।5।।
सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा।।5।।
समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरों
के द्वारा किनारों पर रत्न
डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य पा जाते हैं। सब तालाब कमलों से परिपूर्ण
हैं। दसों दिशाओं के विभाग (अर्थात् सभी प्रदेश) अत्यन्त प्रसन्न हैं।।5।।
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