लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 4471
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

234 पाठक हैं

वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


सुनी चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होई सकल भ्रम हानी।।
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना।।2।।

वे प्रभु के श्रीमुख की वाणी सुनना चाहते हैं, जिसे सुनकर सारे भ्रमों का नाश हो जाता है। अन्तर्यामी प्रभु सब जान गये और पूछने लगे-कहो, हनुमान् ! क्या बात है ?।।2।।

जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता।।
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।।3।।

तब हनुमान जी हाथ जोड़कर बोले-हे दीनदयालु भगवान् ! सुनिये। हे नाथ ! भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं, पर प्रश्न करते मनमें सकुचा रहे हैं।।3।।

तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ।।
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना।।4।।

[भगवान् ने कहा-] हनुमान् ! तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीचमें कभी भी कोई अन्तर (भेद) है ? प्रभुके वचन सुनकर भरतजीने उनके चरण पकड़ लिये [और कहा-] हे नाथ ! हे शरणागतके दुःखोंको हरनेवाले ! सुनिये।।4।।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book