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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

मन को इस तरह समझा कर उसने एक भार उतार फेंका। 'दोनों में से किसी को छोड़े बिना दो चंद्रमा वाले ग्रह की तरह वह मजे में जीवन के दिन काट लेगा', यह सोच कर उसका जी खिल उठा। यह सोच कर वह तेजी से कदम बढ़ाता हुआ घर की ओर चल पड़ा कि आज जरा पहले ही वह बिस्तर पर जा लेटेगा और स्नेह-जतन से, मीठे वचन से आशा के मन की सारी वेदना धो देगा।

उसके खाने के समय आशा मौजूद न थी - लेकिन सोने तो आएगी ही, यह सोच कर महेंद्र बिस्तर पर लेट गया। लेकिन उस सन्नाटे में सूनी सेज पर किस स्मृति ने महेंद्र के मन को छा लिया? 'विषवृष' के लिए विनोदिनी से उस दिन की छीना-झपटी याद आई। साँझ के बाद विनोदिनी 'कपालकुण्डला' पढ़ कर सुनाना शुरू करती - धीरे-धीरे रात हो आती, घर के सारे लोग सो जाते, सूने कमरे की स्तब्ध निर्जनता विनोदिनी की आवाज आवेश से मानो धीमी हो आती, रुँध-सी जाती; अचानक वह अपने को जब्त करके उठ खड़ी होती, किताब रख देती - महेंद्र कहता, 'चलो, मैं तुम्हें सीढ़ी तक छोड़ आऊँ।' ये बातें याद आने लगीं और सर्वांग में सिहरन होने लगी। रात क्रमश: ज्यादा होने लगी - महेंद्र को रह-रह कर आशंका होने लगी, अब आशा आएगी, अब आएगी। लेकिन वह न आई। महेंद्र ने सोचा, मैं तो अपने कर्तव्य के लिए तैयार था, अब अगर वह नाहक ही नाराज हो कर न आए तो मैं क्या करूँ? और गहरी रात में उसने विनोदिनी के ध्यान को गाढ़ा कर लिया।

जब एक बज गया, तो महेंद्र से न रहा गया। मसहरी हटा कर वह बाहर निकला। छत पर गया। देखा, चाँदनी रात बड़ी ही सुहानी हो रही है। महेंद्र की जमाने से रुकी पड़ी आकांक्षा अब अपने आपको न रोक सकी। जब से आशा आई, विनोदिनी की झलक भी न दिखाई दी। चाँदनी से उमगी सूनी रात महेंद्र को मोह से आच्छन्न करके विनोदिनी की तरफ ठेल कर ले जाने लगी। महेंद्र नीचे उतरा। विनोदिनी के कमरे के पास गया। देखा, कमरा बंद नहीं है। अंदर गया। सेज बिछी थी, उस पर कोई सोया न था। कमरे में आहट पा कर दक्खिन वाले खुले बरामदे से विनोदिनी ने पूछा - 'कौन है?'

रुँधे हुए गीले स्वर से महेंद्र बोला - 'मैं हूँ, विनोद।'

और महेंद्र सीधा बरामदे में पहुँच गया।

गर्मी की रात। बरामदे में चटाई डाल कर विनोदिनी के साथ राजलक्ष्मी सोई थीं। उन्होंने कहा - 'महेंद्र, इतनी रात को तू यहाँ कैसे?'

अपनी काली घनी भौंहों के नीचे से विनोदिनी ने महेंद्र पर वज्र-कटाक्ष डाला। महेंद्र ने कोई जवाब न दिया। तेजी से वहाँ से चला गया।

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