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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

गरीब भाई की माँ-बाप-विहीना बेटी को उन्होंने अपने ही यहाँ रखा है। उसकी मौसी अन्नपूर्णा ने कहा था, मेरे पास रहने दो। इससे खर्च की कमी जरूर होती, लेकिन गौरव की कमी के डर से अनुकूल राजी न हुए। यहाँ तक कि मुलाकात के लिए भी कभी उसे मौसी के यहाँ नहीं जाने देते थे। अपनी मर्यादा के बारे में इतने ही सख्त थे वे।

लड़की के विवाह की चिंता का समय आया। लेकिन इन दिनों विवाह के विषय में 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' वाली बात लागू नहीं होती। चिंता के साथ-साथ लागत भी लगती। परंतु दहेज की बात उठते ही अनुकूल कहते, 'मेरी भी तो अपनी लड़की है, अकेले मुझसे कितना करते बनेगा।' इसी तरह दिन निकलते जा रहे थे। ऐसे में बन-सँवर कर खुशबू बिखेरते हुए रंग-भूमि में अपने दोस्त के साथ महेंद्र ने प्रवेश किया।

चैत का महीना। सूरज डूब रहा था। दुमंजिले का दक्षिणी बरामदा चिकने चीनी टाइलों का बना, उसी के एक ओर दोनों मेहमानों के लिए फल-फूल, मिठाई से भरी चाँदी की तश्तरियाँ रखी गईं। बर्फ के पानी-भरे गिलास जैसे ओस-बूँदों से झलमल। बिहारी के साथ महेंद्र सकुचाते हुए खाने बैठा। नीचे माली पौधों में पानी डाल रहा था और भीगी मिट्टी की सोंधी सुगंध लिए दक्खिनी बयार महेंद्र की धप-धप धुली चादर के छोर को हैरान कर रही थी। आसपास के दरवाजे के झरोखों की ओट से कभी-कभी दबी हँसी, फुसफुसाहट, कभी-कभी गहनों की खनखनाहट सुनाई दे रही थी।

खाना खत्म हो चुका तो अंदर की तरफ देखते हुए अनुकूल बाबू ने कहा - 'चुन्नी, पान तो ले आ, बेटी!'

जरा देर में संकोच से पीछे का दरवाजा खुल गया और सारे संसार की लाज से सिमटी एक लड़की हाथ में पानदान लिए अनुकूल बाबू के पास आ कर खड़ी हुई। वे बोले, 'शर्म काहे की बिटिया, पानदान उनके सामने रखो!'

उसने झुक कर काँपते हुए हाथों से मेहमानों के बगल में पानदान रख दिया। बरामदे के पश्चिमी छोर से डूबते हुए सूरज की आभा उसके लज्जित मुखड़े को मंडित कर गई। इसी मौके से महेंद्र ने उस काँपती हुई लड़की के करुण मुख की छवि देख ली।

बालिका जाने लगी। अनुकूल बाबू बोले- 'जरा ठहर जा, चुन्नी! बिहारी बाबू, यह है छोटे भाई अपूर्व की लड़की, अपूर्व तो चल बसा, अब मेरे सिवाय इसका कोई नहीं।'

और उन्होंने एक लंबी उसाँस ली।

महेंद्र का मन पसीज गया। उसने एक बार फिर लड़की की तरफ देखा।

उसकी उम्र साफ-साफ कोई न बताता। सगे-संबंधी कहते, बारह-तेरह होगी। यानी चौदह-पन्द्रह होने की संभावना ही ज्यादा थी। लेकिन चूँकि दया पर चल रही थी इसलिए सहमे-से भाव ने उसके नव-यौवन के आरंभ को जब्त कर रखा था।

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