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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

आशा का दिल बैठ गया। वह अपने को अबोध और विनोदिनी को चालाक समझा करती थी। विनोदिनी के चेहरे का भाव देख कर उसके लिए सारा संसार अंधकारमय हो गया। विनोदिनी से साफ-साफ कुछ पूछने की उसकी हिम्मत न पड़ी। दीवार के पास एक सोफे पर बैठ गई। विनोदिनी भी बगल में बैठी। उसे अपने कलेजे से जकड़ लिया। सखी के इस आलिंगन से वह अपने आपको सम्हाल न सकी। दोनों के आँसू झरने लगे। दरवाजे पर अंधा भिखारी मँजीरा बजाता हुआ गा रहा था, 'तरने को अपने चरणों की तरणी दे माँ, तारा!'

बिहारी महेंद्र की तलाश में आया था। दरवाजे पर से ही उसने देखा, आशा रो रही है और विनोदिनी उसे अपनी छाती से लगाए उसके आँसू पोंछ रही है। देख कर बिहारी वहाँ से खिसक गया। बँगले के अँधेरे कमरे में जा कर बैठ गया। दोनों हथेलियों से अपना सिर दबा कर सोचने लगा, 'आशा आखिर रो क्यों रही है? जो बेचारी स्वभाव से ही कोई कसूर करने में असमर्थ है, ऐसी नारी को भी जो रुलाए उसे क्या कहा जाए।' विनोदिनी की उस तरह की सांत्वना, निस्वार्थ सखी-प्रेम को देख कर अभिभूत हो गया।

वह बड़ी देर तक अँधेरे में बैठा रहा। अंधे भिखारी का गाना जब बंद हो गया तो वह पैर पटक कर खाँसता हुआ महेंद्र के कमरे की तरफ बढ़ा। द्वार पर पहुँचा भी न था कि आशा घूँघट काढ़ कर अंत:पुर की ओर भाग गई।

अंदर पहुँचते ही विनोदिनी ने पूछा - 'अरे, क्या आपकी तबीयत खराब है, बिहारी बाबू?'

बिहारी - 'नहीं तो।'

विनोदिनी - 'फिर आँखें ऐसी लाल क्यों हैं?'

बिहारी ने इस बात का जवाब नहीं दिया। पूछा - 'विनोद भाभी, महेंद्र कहाँ गया?'

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