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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

फिर भी भोजन कर चुकने के बाद बिहारी खोज-खबर के लिए महेंद्र के यहाँ आया। नौकर से पता चला, महेंद्र कहीं बाहर नहीं गया है। 'महेंद्र भैया' कह कर उसने सीढ़ी से आवाज दी और कमरे में दाखिल हुआ। महेंद्र बड़ा अप्रतिभ हो गया। 'सिर में बे-हिसाब दर्द है'-कह कर उसने तकिए का सहारा लिया। यह सुन कर और महेंद्र के चेहरे का हाव-भाव देख कर आशा तो अचकचा गई। उसने विनोदिनी की तरफ इस आशय से ताका कि क्या करना चाहिए। विनोदिनी खूब समझ रही थी- मामला संगीन नहीं है, फिर भी घबरा कर बोली, 'बड़ी देर से बैठे हो, थोड़ी देर लेट जाओ! मैं यूडीकोलोन ले आती हूँ।'

महेंद्र बोला - 'रहने दो, उसकी जरूरत नहीं।'

विनोदिनी ने उस पर ध्यान न दिया। वहजल्दी से बर्फ-मिले पानी में यूडीकोलोन डाल कर ले आई। आशा को गीला रूमाल देती हुई बोली - 'उनके सिर पर बाँध दो!'

महेद्र बार-बार कहने लगा - 'अरे छोड़ो-छोड़ो!' बिहारी हँसी रोक कर चुपचाप यह नाटक देखता रहा। मन में गर्व करते हुए महेंद्र ने कहा - 'कमबख्त बिहारी देखे कि मेरी कितनी इज्ज़त होती है!'

बिहारी खड़ा था। लाज से काँपते हाथों से आशा ठीक से पट्टी न बाँध पाई, लुढ़क कर यूडीकोलोन की एक बूँद महेंद्र की आँख से गिर गई। विनोदिनी ने आशा से रूमाल ले कर अपने कुशल हाथों से ठीक से बाँध दिया। सफेद कपड़े के दूसरे टुकड़े को यूडीकोलोन में भिगो कर धीमे-धीमे पट्टी पर निचोड़ने लगी। आशा घूँघट काढ़े पंखा झलती रही।

स्निग्ध स्वर में विनोदिनी ने पूछा - 'महेंद्र बाबू, आराम मिल रहा है' आवाज में इस तरह शहद घोल कर विनोदिनी ने तेज कनखियों से बिहारी को देख लिया। देखा, कौतुक से बिहारी की आँखें हँस रही हैं। उसको यह सब कुछ प्रहसन-सा लगा। विनोदिनी समझ गई, 'इस आदमी को ठगना आसान नहीं, इसकी पैनी निगाह से कुछ नहीं बच सकता।'

बिहारी ने हँस कर कहा - 'विनोदिनी भाभी, ऐसी तीमारदारी से बीमारी जाने की नहीं, और बढ़ जाएगी।'

विनोदिनी - 'मैं मूर्ख स्त्री, मुझे इसका क्या पता! आपके चिकित्सा-शास्त्र में ऐसा ही लिखा है, क्यों?'

बिहारी - 'लिखा तो है ही। सेवा देख कर अपना भी माथा दुखने लगा। लेकिन फूटे कपाल को चिकित्सा के बिना ही चंगा हो जाना पड़ता है। महेंद्र भैया का कपाल जोरदार है।'

विनोदिनी ने कपड़े का ओछा टुकड़ा रख दिया। कहा - 'न, हमें क्या पड़ी! दोस्त का इलाज दोस्त ही करे।'

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