लोगों की राय

उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

103 पाठक हैं

नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

52

रात में महेंद्र सोया नहीं - थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के करीब जग कर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर-ही-भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेंद्र उसकी तकलीफ महसूस करने लगा। कुछ ही देर में रात की सारी घटना मन में जाग पड़ी। सुबह की उस धूप में, पूरी नींद न आ पाने की थकावट से सारी दुनिया और जिंदगी बड़ी सूखी-सी लगी। घर छोड़ने की ग्लानि, धर्म छोड़ने का परिताप और इस उद्भ्रांत जीवन की ये जिल्लतें आखिर वह किसके लिए झेल रहा है! मोह के आवेश से रहित सुबह की इस धूप में महेंद्र को लगा, वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता। उसने रास्ते की ओर झाँका - सारी दुनिया परेशान-सी काम के पीछे भाग रही है और आत्म-गौरव को कीचड़ में डुबो कर एक बेरुखी औरत के पैरों से लिपटे रहने की जो नादानी है, वह महेंद्र की निगाहों में स्पष्ट हो उठी। आवेग के किसी बड़े झोंके के बाद हृदय में अवसाद आता है, ऐसे वक्त थका-हारा हृदय अनुभूति के विषय को कुछ समय के लिए दूर हटाना चाहता है। भावों का ऐसा भाटा पड़ने के समय नीचे की सारी छिपी हुई गन्दगी ऊपर आ जाती है-मोह लाने वाली वस्तुन से विरक्त हो आती है। महेन्द्रत क्योंो अपने को इस तरह अपमानित कर रहा है, इसे वह आज न समझ सका। उसने सोचा, 'मैं हर तरह से विनोदिनी से बेहतर हूँ, फिर भी सब प्रकार की हीनता और झिड़कियाँ बर्दास्ती करता हुआ घिनौने भिखमंगे-सा उसके पीछे मारा-मारा फिर रहा हूँ-ऐसा अजीब पागलपन किस शैतान ने मेरे दिमाग में भर दिया है।' आज विनोदिनी महेन्द्रन के लिए महज एक औरत रह गई, और कुछ नहीं; उसके लिए चारों तरफ फैली धरती की सुषमा से, काव्योंन से, कहानियों से लावण्य  की जो एक ज्योेति खिंच आई थी, उसकी माया-मरीचिका के गायब होते ही वह एक मामुली नारी-मात्र हो रही-उसका कोई अनोखापन न रहा।

फिर तो धिक्कार के इस मार-चक्र से अपने को छुड़ा कर घर जाने के लिए महेंद्र ललक उठा, बिहारी को निर्भर करने योग्य अडिग मिताई बड़ी बेशकीमती लगने लगी। महेंद्र मन-ही-मन कह उठा - 'जो वास्तव, गंभीर और स्थायी होता है, उसमें अनायास, बाधा-विहीन-सा अपने को पूरी तरह खोया जा सकता है, इसीलिए उसके गौरव को हम नहीं समझते। जो महज धोखा है, जिसकी तृप्ति में भी सुख का नाम नहीं, चूँकि वह हमें अपने पीछे घुड़दौड़-सी कराता है, इसलिए हम उसे अपनी चरम कामना का धन समझते हैं।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book