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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

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जिन दिनों बिहारी पश्चिम में भटकता फिर रहा था, उसके मन में आया, 'जब तक कोई काम ले कर न बैठूँ चैन न मिलेगा।' यही सोच कर उसने कलकत्ता के गरीब किरानियों के मुफ्त इलाज और सेवा-जतन का भार उठाया। गर्मी के दिनों में डाबर की मछलियाँ जिस तरह कम पानी और कीचड़ में किसी प्रकार जिंदा रह लेती हैं, तंग गलियों के सँकरे कमरों में परिवार का बोझ उठाने वाले बेचारे किरानियों की जिन्दगी वैसी ही है - उन दुबले, पीले पड़े, चिंता से पिसने वाले भद्रवर्ग के लोगों के प्रति बिहारी को बहुत पहले ही दया हो आई थी - इसलिए उसने उन्हें बगीचे की छाँह और गंगा-तट की खुली हवा दान देने का संकल्प किया।

बाली में उसने बगीचा खरीदा और चीनी कारीगरों से छोटे झोपड़े बनवाने शुरू किए। लेकिन मन को राहत न मिली। काम में लगने का दिन ज्यों-ज्यों करीब आने लगा, उसका मन अपने निश्चय से डिगने लगा। बार-बार उसका मन यही कहने लगा - 'इस काम में कोई सुख नहीं, रस नहीं, सौंदर्य नहीं - यह महज एक नीरस भार है।' काम की कल्पना ने इसके पहले कभी भी बिहारी को इतना परेशान नहीं किया।

कभी ऐसा भी था कि बिहारी को खास कोई जरूरत ही न थी, जो कुछ भी सामने आ जाता, उसी में वह सहज ही अपने को लगा सकता था। अब उसके मन में न जाने कौन-सी भूख जगी है, उसे बुझा लेने के पहले और किसी भी चीज में उसकी आसक्ति नहीं होती। जैसी शुरू से आदत रही है, इस-उस में हाथ डाल कर देखता और दूसरे ही क्षण उसे छोड़ कर छुटकारा पाना चाहता!

बिहारी के अंदर जो जवानी निश्चकय सोई पड़ी थी, जिसके विषय में उसने कभी सोचा तक नहीं, वह जवानी विनोदिनी की जादू की छड़ी छूकर जाग उठी है। अभी-अभी पैदा हुए गरुड़ की तरह अपनी खुराक के लिए वह सारी दुनिया को झिंझोड़ती फिर रही है। इस भूखे जीव से बिहारी को पहले पहचान न थी-इसके चलते वह परेशान हो उठा है, अब कलकत्ता के इन दीन-दुर्बल अल्पावयु किरानियों को लेकर वह क्यात करेगा?

सामने आषाढ़ की गंगा। रह-रहकर उस पार नीले मेघों की पनी पाँत भी से झुके पेड़-पौधों पर घिर आती-नदी का पाट कहीं तो इस्पात की तलवार-सा चमकता, श्या-म रंग लेता, कहीं आग-जैसा झकमका उठता। वर्षारंभ के इस समारोह पर बिहारी की ज्योंझ ही निगाह पड़ती, त्योंक ही उसके हृदय का दरवाजा खोलकर आकाश की इस नीली आभा में न जाने कौन एकाकिनी बाहर निकल पड़ती, वर्षा का आकाश चीरकर छिटकी पड़ती सारी किरणों को बीनकर न जाने कौन केवल उसी के मुँह पर अपलक आँखों की दमकती हुई कातरता बिखरेती।

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