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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

इस भलमनसाहत पर उसने ध्यान दिया। स्थिर खड़ी-खड़ी बोली - 'बिहारी भाई साहब को माँ की बीमारी की खबर देना लाजिमी है।'

बिहारी का नाम सुनते ही महेंद्र के गहरे जख्म पर चोट लगी। अपने को सँभाल कर वह बोला - 'लाजिमी क्यों है, मेरे इलाज का भरोसा नहीं हो रहा है, क्यों?'

आशा ने मन में यह शिकायत भरी-सी थी कि महेंद्र माँ के इलाज में उतना ध्यान नहीं दे रहा है, तो उसके मुँह से निकल पड़ा - 'कहाँ, उनकी बीमारी तो जरा भी नहीं सुधरी, बल्कि दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है।'

इस मामूली बात में जो आँच थी, महेंद्र अपने अहंकार से आहत हो विस्मित व्यंग्य के साथ बोला - 'देखता हूँ, तुमसे डाक्टरी सीखनी पड़ेगी।'

इस व्यंग्य से आशा को उसकी जमी हुई वेदना पर अप्रत्याशित चोट लगी। तिस पर कमरा अँधेरा था, जो सदा ही चुप रह जाने वाली आशा आज बे-खटके तेजी के साथ बोल उठी - 'डाक्टरी न सही, माँ की सेवा सीख सकते हो।'

आशा से ऐसा जवाब पा कर महेंद्र के अचरज की सीमा न रही। ऐसे तीखे वाक्य सुनने का वह आदी न था। वह कठोर हो उठा। बोला - 'तुम्हारे बिहारी भाई साहब को यहाँ आने की मनाही क्यों की है - तुम तो जानती हो - शायद फिर याद आ गई है!'

आशा तेजी से बाहर चली गई। शाम की आँधी मानो उसे ढकेल कर ले गई। शर्म अपने लिए न थी। जो आदमी सिर से पैर तक अपराध में डूबा हो, वह जुबान पर ऐसे झूठे अपवाद भी ला सकता है! इतनी बड़ी बेहयाई को लाज के पहाड़ से भी नहीं ढँका जा सकता।

आशा के चले जाने के बाद ही महेंद्र अपनी पूरी हार का अनुभव कर सका। महेंद्र को मालूम भी न था कि आशा कभी भी किसी भी अवस्था में महेंद्र को इस तरह धिक्कार सकती है। उसे लगा, जहाँ उसका सिंहासन था, वहीं वह धूल में लोट रहा है। इतने दिनों के बाद अब उसे यह शंका होने लगी, 'आशा की वेदना कहीं घृणा में न बदल जाए।'

और उधर बिहारी की चर्चा आते ही विनोदिनी की चिंता ने उसे बेताब कर दिया। पश्चिम से बिहारी लौटा या नहीं, कौन जाने? हो सकता है, इस बीच विनोदिनी उसका पता ले आई हो, विनोदिनी से बिहारी की भेंट भी असंभव नहीं। महेंद्र से अब प्रतिज्ञा का पालन न हो सका।

रात को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ गई। उससे न रहा गया। उन्होंने महेंद्र को बुलावा भेजा। बड़ी तकलीफ से बोली फूटी- 'महेंद्र, बिहारी को देखने को मेरा बड़ा जी चाहता है - बहुत दिनों से वह नहीं आया है।'

आशा सास को पंखा झल रही थी। मुँह नीचा किये बैठी रही। महेंद्र ने कहा - 'वह यहाँ नहीं है। जाने कहाँ पछाँह गया है।'

राजलक्ष्मी ने कहा - 'मेरी अंतरात्मा कह रही है, वह यहाँ है, सिर्फ तुझसे रूठ कर नहीं आ रहा है। मेरे सिर की कसम रही, कल तू एक बार उसके यहाँ जाना।'

महेंद्र ने कहा - 'अच्छा, जाऊँगा।'

आज सब बिहारी के लिए परेशान हैं।

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