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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

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'महेंद्र रात में ही उठ कर चला गया,' यह सुन कर राजलक्ष्मी बहू पर बहुत नाराज हुईं। उन्होंने समझा बहू की लानत-मलामत से ही वह चला गया। उन्होंने आशा से पूछा - 'महेंद्र रात चला क्यों गया?'

आशा ने सिर झुका कर कहा - 'मालूम नहीं, माँ!'

राजलक्ष्मी को लगा, यह भी रूठने की बात है। आजिजी से कहा - 'तुम्हें नहीं मालूम तो किसे मालूम होगा? कुछ कहा था उससे?'

आशा ने सिर्फ 'नहीं' कहा।

राजलक्ष्मी को यकीन न आया। ऐसा भी हो सकता है भला। पूछा - 'कल वह गया कब?'

सकुचाकर आशा बोली - 'नहीं जानती।'

राजलक्ष्मी ने जोर दे कर यह भी कह दिया कि आशा के आचरण और स्वभाव की वजह से महेंद्र घर से निकल गया। सिर झुका कर यह फटकार झेलती हुई आशा अपने कमरे में जा कर रोने लगी। अपने मन में सोचने लगी, 'पता नहीं क्यों कभी मेरे स्वामी ने मुझे प्यार किया था और यह भी नहीं जानती कि उसका वह प्यार मैं फिर कैसे पा सकूँगी। जो प्यार करता है, उसे कैसे खुश करना चाहिए, हृदय आप ही यह बता देता है, लेकिन जो प्यार नहीं करता, उसके हृदय को कैसे पाया जा सकता है, आशा यह क्या जाने। जो आदमी किसी और को प्यार करता है, उससे सुहाग पाने-जैसी शर्मनाक कोशिश वह कैसे करे?'

शाम को परिवार के ज्योतिषी जी और उनकी बहन आई। बेटे की ग्रहशांति के लिए राजलक्ष्मी ने उन्हें बुलवाया था। बहू की जन्म-कुंडली और हाथ देखने का राजलक्ष्मी ने उनसे अनुरोध किया, और इसके लिए आशा को वहाँ बुलवाया गया। दूसरों के आगे अपनी बदनसीबी की चर्चा के संकोच से कुंठित हो कर आशा किस तरह से अपना हाथ निकाल कर बैठी कि इतने में अपने कमरे के पास वाले अँधेरे बरामदे में राजलक्ष्मी को जूतों की हल्की-सी आहट सुनाई दी - कोई जैसे दबे पाँव जा रहा हो। राजलक्ष्मी ने पूछा - 'कौन?'

पहले तो कोई जवाब न मिला। फिर आवाज दी- 'कौन है?' इस पर महेंद्र चुपचाप कमरे में आया।

आशा खुश तो क्या होती, महेंद्र की लज्जा देख कर लज्जा से उसका हृदय भर गया। अब महेंद्र को अपने घर में ही चोर की तरह आना पड़ा है। ज्योतिषी जी और उनकी बहन के रहने से उसे और भी शर्म आई। दुनिया-भर के सामने अपने स्वामी के लिए लाज ही आशा को दु:ख से बड़ी हो उठी थी। और अब राजलक्ष्मी ने धीमे से कहा - 'बहू, पार्वती से कह दो, महेंद्र का खाना लगा दो,' तो आशा बोली - 'न, मैं ही ले आती हूँ।'

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