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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

यह सोच कर उसने खिड़की खोली और गैस की रोशनी से दमकते शहर की ओर देखने लगी, बिहारी अभी साँझ को इस शहर में ही है, यहाँ से एकाध रास्ते, दो-चार गलियाँ पार करके अभी-अभी उसके दरवाजे पर मजे में पहुँचा जा सकता है। द्वार के बाद ही नल वाला छोटा-सा अँगना, वही सीढ़ी, वही सजा-सजाया कमरा - सन्नाटे में बिहारी आराम-कुर्सी पर अकेला बैठा - शायद सामने खड़ा ब्राह्मण का वह लड़का, गोल-मटोल, गोरा-गोरा सुंदर-सा वह लड़का नजर गड़ाये तस्वीरों वाली किसी किताब के पन्ने पलट रहा हो - एकाएक सारे चित्र को सुधि में ला कर स्नेह से, प्रेम से विनोदिनी का सर्वांग पुलकित हो उठा। जी चाहे तो अभी वहाँ पहुँच जाया जा सकता है। यह सोच कर विनोदिनी इस इच्छा को छाती से लगाए खेलने लगी। पहले की बात होती, तो शायद वह अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए लपक पड़ती, लेकिन अब आगे-पीछे बहुत सोचना पड़ता है। अब तो महज वासना पूरी करने का सवाल नहीं रहा, उद्देश्य की पूर्ति करनी है। विनोदिनी सोचने लगी - 'पहले यह देखूँ कि बिहारी जवाब क्या देता है, उसके बाद तय करूँगी कि किस रास्ते जाना है।' कुछ समझे बिना बिहारी को तंग करने के लिए जाने की हिम्मत न पड़ी।

इसी तरह सोचते-विचारते जब रात के नौ बज गए तो महेंद्र लौट कर आ गया। ये कई दिन उसे भूखे-प्यासे, बदपरहेजी और उत्तेजना में कटे। आज कामयाब हो कर विनोदिनी को वह अपने डेरे में ले आया; इसीलिए थकावट से मानो चूर-चूर हो गया। दुनिया से, अपने मन की हालत से लड़ने लायक बल उसमें नहीं रह गया था। भारों से लदे उसके भावी जीवन की थकावट ने मानो पहले से ही उसे दबोच लिया।

बाहर से दरवाजे के कड़े खटखटाने में महेंद्र को बड़ी शर्म लगने लगी। जिस पागलपन में दुनिया का कोई खयाल ही न किया, वह पागलपन कहाँ! रास्ते के अचीन्हे-अजाने लोगों की नजर के सामने भी उसका सर्वांग सकुचा क्यों रहा है?

अंदर नया नौकर सो गया था। दरवाजा खुलवाने के लिए बड़ा हंगामा करना पड़ा। अपरिचित नए डेरे के अँधेरे में पहुँचाने पर महेंद्र का मन ढीला पड़ ही गया। माँ का लाड़ला महेंद्र जिन विलास-उपकरणों - पंखे, कुर्सी, सोफे - का आदी रहा है, उसका अभाव यहाँ साफ दिख गया। इन कमी-खामियों को मिटाना ही पड़ेगा। डेरे के सारे इंतजाम का भार उसी पर था। महेंद्र ने आज तक कभी अपने या किसी के आराम के फिक्र नहीं की - आज से उसे एक नए और अधूरे संसार का तीली-तीली भार उठाना। सीढ़ी पर एक ढिबरी धुआँ उगलती हुई टिमटिमा रही थी; वहाँ के लिए एक लैंप लाना पड़ेगा। बरामदे से सीढ़ी को जाने वाला रास्ता नल के पानी से चिपचिपाता रहता, मिस्त्री बुला कर सीमेंट से उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। सड़क की तरफ के दो कमरे जूतों की दुकान वालों के जिम्मे थे, उन्होंने अभी तक उन्हें खाली नहीं किया - मकान-मालिक से इसके लिए लड़ेगा। सारा काम खुद ही करना पड़ेगा - लम्हे-भर में यह बात दिमाग में आई और उसकी थकावट के भार पर और भी बोझ लद गया।

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