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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

ऊपर पहुँचते ही उसकी नजर पड़ी, कमरे के सामने सायबान वाले बरामदे में आशा जमीन पर ही पड़ी थी। उसने महेंद्र के पैरों की आहट नहीं सुनी थी, अचानक उसे सामने देख कपड़े संभाल कर उठ बैठी। इस समय कहीं एक बार भी महेंद्र ने चुन्नी कह कर पुकारा होता, तो वह महेंद्र के सारे अपराधों को अपने सिर ले कर माफ की गई अपराधिनी की तरह उसके दोनों पैर पकड़ कर जीवन-भर का रोना रो लेती। लेकिन महेंद्र वह नाम ले कर न पुकार सका है।

आशा संकोची बैठी रही। महेंद्र ने भी कुछ न कहा। चुपचाप छत पर टहलने लगा। चाँद अभी तक उगा न था। छत के एक कोने में छोटे-से गमले के अंदर रजनीगंधा के दो डंठलों में दो फूल खिले थे। छत पर के आसमान के वे नखत, वह सतभैया, वह काल-पुरुष, उनके जाने कितनी संध्या के एकांत प्रेमाभिनय के मौन गवाह थे - आज वे सब टुकुर-टुकुर ताकते रहे।

महेंद्र सोचने लगा - इधर के इन कई दिनों की इस विप्लव-कथा को इस आसमान के अँधेरे से पोंछ कर ठीक पहले की तरह अगर खुली छत पर चटाई डाले आशा की बगल में उसी सदा की जगह में सहज ही बैठ पाता! कोई सवाल नहीं, कोई जवाबदेही नहीं; वही विश्वास, वही प्रेम, वही सहज आनंद! लेकिन हाय, यहाँ उतनी-सी जगह को फिर लौटने की गुंजाइश नहीं। छत की चटाई पर आशा के पास की जगह का वह हिस्सा महेंद्र ने खो दिया है। अब तक विनोदिनी का महेंद्र से एक स्वाधीन संबंध था, प्यार करने का पागल सुख था, लेकिन अटूट बंधन नहीं था। अब वह विनोदिनी को खुद समाज से छीन कर ले आया है, अब उसे कहीं भी रख आने की, कहीं भी लौटा आने की जगह नहीं रही - महेंद्र ही अब उसका एकमात्र अवलंब है। अब इच्छा हो या न हो, विनोदिनी का सारा भार उसे उठाना ही पड़ेगा।

लंबी उसाँस ले कर महेंद्र ने एक बार आशा की ओर देखा। मौन रुलाई से अपनी छाती भरे आशा तब भी उसी तरह बैठी थी - रात के अँधेरे ने माँ के दामन की तरह उसकी लाज और वेदना लपेट रखी थी।

न जाने क्या कहने के लिए महेंद्र अचानक आशा के पास आ कर खड़ा हुआ। सर्वांग की नसों का लहू आशा के कान में सिमटकर चीखने लगा - उसने आँखें मूंद लीं। महेंद्र सोच नहीं पाया कि वह आखिर क्या कहने आया था - कहने को उस पर है भी क्या? लेकिन, बिना कुछ कहे अब लौट भी न सका। पूछा - 'कुंजियों का झब्बा कहाँ है?'

कुंजियों का झब्बा बिस्तर के नीचे था। आशा उठ कर कमरे में चली गई। महेंद्र उसके पीछे-पीछे गया। बिस्तर के नीचे से कुंजियाँ निकाल कर आशा ने बिस्तर पर रख दीं। झब्बे को ले कर महेंद्र अपने कपड़ों की अलमारी में एक-एक कुंजी लगा कर देखने लगा। आशा रह न सकी। बोल पड़ी - 'उस अलमारी की कुंजी मेरे पास न थी।'

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