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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

27


रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे सौम्य यही बात सोचने लगा। हाथ में पकड़ी किताब बन्द करके सोचता रहा, लोग ऐसी नीचता क्यों करते हैं? क्यों एक निरीह निर्विवादी शरीफ़ इन्सान को हर समय नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं? क्यों उनकी अवज्ञा और अवहेलना करते हैं? उनको अपमानित करते हैं?

हाँ, न मानो 'पूजनीय' न मानो। अपने से 'बड़ा', 'गुरुजन', एक शरीफ़ आदमी मानने में तो कोई बुराई नहीं। वे बेचारे तो कहीं भी, किसी काम में अपने मालिक होने की बात नहीं करते हैं। अपना अधिकार जताते ही नहीं हैं। वरन् तुम्हीं लोगों के आराम से रहने का, निश्चिन्त शान्तिपूर्ण जीवन जीने का एक रास्ता बना दिया है इसी आदमी ने। और तुम लोग' चुपचाप सोचते-सोचते एकाएक उसे लगा, शायद यही कारण है। भीतर ही भीतर ये लोग ऋणबोध के कम्प्लेक्स से तड़प रहे हैं। आँखों के सामने ऋणदाता का हर समय रहना, इन्हें खटकता होगा।

पिताजी अगर अपने मालिकाने अधिकार को जताते रहते तो शायद ये लोग कुछ हल्कापन महसूस करते। प्रतिवाद करते, विरोध करते, विद्रोह करते और इस तरह से प्राप्त करते ये सुख, ये सुविधा तो शायद समस्या इतनी जटिल न बन गयी होती। लेकिन अब तो ये होने से रहा।

पिताजी बिना किसी शर्त के आत्मसमर्पण किये बैठे हैं।

अतएव ऋण के भार से हल्का होने का इन लोगों ने यही रास्ता चुन लिया है।

सहसा सौम्य को ध्यान आया कि वह अपने भाई-भाभी को ‘इन्हें' 'उन्हें' सोच रहा है। बेरी बैड। वैसे कसूर तो मेरा भी कुछ कम नहीं। मैं अगर पिताजी और घर गृहस्थी के मामलों में इतना निर्लिप्त न हुआ होता तो शायद पिताजी में इतनी हताशा न जागती। उन्हें ऐसा नहीं लगता कि 'मेरा कोई नहीं है'।

वास्तव में मैं बड़ा ही अकृतज्ञ हूँ। पिताजी के लिए मैं कितनी चिन्ता करता हूँ? ...चिन्ता न करनी पड़ती अगर माँ रहतीं।

अगर माँ रहतीं।

सोचते ही मन में अजीब-सी उथल-पुथल होने लगी।

माँ ही को कहाँ याद करता हूँ?

माँ का सदा प्रसन्न हँसता चेहरा याद आया। उसे याद नहीं आया कि उनके रहते कभी कोई उदास हुआ होगा।

और अब?

लगता है गृहस्थी बोझ से दबी जा रही है।

फिर धीरे से किताब खोल ली उसने और तभी पिताजी की कही वह बात याद आ गयी, “तेरी बहू ही अगर रहती...।"

लेकिन यह क्या?

सर्वनाश !

दिमाग में बात आयी नहीं कि लाल बनारसी साड़ी में लिपटी कौन पिताजी के पाँव छूकर प्रणाम कर रही है?

कौन है ये लड़की? कौन? नहीं। इस तरह की फ़ार बातों को प्रश्रय देना ठीक नहीं। सौम्य ने किताब पर ध्यान दिया। बिना किताब पढ़े नींद आने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

पढ़ते-पढ़ते सारी चिन्ताएँ धीरे-धीरे गायब हो गयीं। जाने कब उसे नींद आ गयी।

परन्तु नींद में भी उसके मन पर उदासी के बादल छाये रहे।

बेचारे पिताजी !

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