उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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महोत्साह से निमन्त्रण-पत्र में क्या लिखा जायेगा, प्रवासजीवन उसी तैयारी में जुटे थे। चैताली ने कहा था आजकल कोई भी सम्मान-वम्मान नहीं लिखता है।
“ओह, ऐसी बात है? सम्मान प्रकट करना अब अतीत की बात हो गयी है?"
चैताली ने फिर कुछ नहीं कहा, केवल शुभविवाह के दो निमन्त्रण-पत्र मेज़ पर रखकर बोली, “आजकल इस तरह की चिट्ठियाँ लिखी जाती हैं, इसीलिए कह रही थी..."
प्रवासजीसन पढ़कर बोले, “यह क्या है? इस तरह की चालू भाषा" "मेरा मध्यम पुत्र या फलाँ की कनिष्ठा कन्या' नहीं? 'मेरा मझला लड़का और फलाँ की छोटी बेटी'?"
फिर सोचने लगे। इस आधुनिकता को (इन लोगों की इच्छा का ध्यान रखते हुए) बनाये रखते हुए अपने मन माफ़िक लिखा कैसे जाये यह सोच ही रहे थे कि सौम्य आया।
कमरे में घुसते ही बिना किसी भूमिका के बोल उठा, “पिताजी, वहुत सोचकर देखा तुम्हारे लिए 'ओल्ड होम' ही सुविधाजनक है।"
“ओल्ड होम?"
जैसे यह शब्द प्रवासजीवन ने ज़िन्दगी में पहली बार सुना था। जब से सौम्य ने डाँटा था तब से इस शब्द को मुँह से दोबारा नहीं निकाला था। और जब से सौम्य की शादी तय हो गयी थी इस शब्द को हृदय के कोने में झाँकने तक नहीं दिया था।
आँख के ऊपर से चश्मा हटाया।
बोले, “बैठ।”
सौम्य बैठा नहीं। बोला, “ठीक हूँ।"
"ठीक नहीं हो, यह मैं देख रहा हूँ। नया कुछ हुआ क्या? बता तो सही।"
सौम्य बोला, “उससे भी आसान होगा तुम्हारा पढ़ना। पढ़कर देख सकते हो।"
हाथ में ली, हज़ारों दफ़ा पढ़ी चिट्ठी, पिता के सामने फेंक दी। बहुत बार पढ़ने पर भी माने साफ़-साफ़ समझ में नहीं आ रहा था।
प्रवासजीवन ने लिफ़ाफ़े से चिट्ठी निकाली। देखकर बोले, “यह तो तुम्हारी चिट्ठी है।”
“सभी के लिए हो सकती है। इससे मेरी कुछ मेहनत कम हो जायेगी।"
प्रवासजीवन बेटे के भीतर की अस्थिरता को महसूस करते हैं।
बोले, “तू जब कह रहा है तब लग रहा है, इसे पढ़कर देखना ज़रूरी है।"
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