उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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लेकिन शायद माँ से बड़ा कोई बेहया नहीं होता है। अगर ऐसा न होता कि इतने दिनों बाद लड़का एकाएक डेली पैसेंजरी करने में असुविधा हो रही है कहकर मेस में रहने चला, तो लाबू हाहाकार न करके, सावधान करते हुए बोली, “वही कलकत्ते रहने जा रहा है। शुरू-शुरू में प्रवासदा ने इतना कहा था लेकिन 'माँ को अकेला नहीं छोडूंगा' कहकर रहने को तैयार नहीं हुआ था। अब तो जाकर रह सकता है? कितने खुश होंगे वे। अच्छा मेस ही कहाँ जल्दी मिलेगा?"
अरुण क्या माँ की बात सुनकर निष्ठुर हो सका था? कह सका था, 'आग्रह वाली बात मेरी बनायी हुई बात थी, माँ। और चाहे कुछ हो, तुम्हारे प्रवासदा के पहले जैसे दिन अब नहीं रहे हैं।'
नहीं ! माँ के साथ अरुण काफ़ी निष्ठुरता बरत चुका है। अब उससे यह काम नहीं होगा।
बोला, “न बाबा ! मुझसे बड़े आदमियों के घर-वर में नहीं रहा जायेगा।"
लाबू ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा, “तू तो कह रहा है अभी मेस का जुगाड़ नहीं हो सका है। दोस्त के यहाँ जाकर रहेगा। तेरा ऐसा कौन दोस्त है?'
“अरे माँ, वह क्या मुझे मुफ्त में रहने देगा? या मैं ही वैसे रहूँगा? बातचीत सब हो चुकी है।"
इस पर लाबू क्या कहती?
जिसके सपने भंग हो जाते हैं उसके लिए कहने को बचता ही क्या है?
ज़रूरत भर का थोड़ा-बहुत सामान, कुछ कपड़े एक सूटकेस में डालकर रवाना हुआ था अरुण। माँ के लिए ही मन भारी हो रहा था। किसने सोचा था कि ट्रेन पर चढ़ते ही वह म्लानकुण्ठित बेचारी-सी मूर्ति आँखों के सामने से हट जायेगी और उसकी जगह ले लेगी तेज आग-सी धधकती एक नयी मूर्ति?
पूरा समय मन पर उसी के छोड़े तीखे व्यंग्यवाण चुभते रहे। उसकी तीव्र दृष्टि सारे शरीर को छलनी करती रही।
कितने आश्चर्य की बात है ! ऐसा एक भयानक काम करने मिंटू आयी कैसे?
परन्तु मिंटू क्या अरुण की शर्त पर विचार करेगी? भयानक कुछ न कर बैठेगी? अगर अरुण को बाद में पता चला कि ठीक उसी समय मिंटू ने रेलगाड़ी के नीचे...
अरुण क्या अगले स्टेशन पर उतर जाये? वापस जाती किसी ट्रेन पर चढ़ जाये? उससे कुछ लाभ होगा क्या?
लेकिन मिंटू ने तो कहा है, 'मैं तुम्हारी तरह मूर्ख नहीं हूँ अरुणदा।'
'ज़िन्दगी इतनी सस्ती नहीं होती है। कहा था, 'मैं देखना चाहती हूँ कि तुम अमीर-धनवान बन गये हो। उन घमण्डी मियाँ-बीवी को उचित उत्तर दे दिया है तुमने।'
ट्रेन की तरफ़ बढ़ते हुए अरुण ने पूछा था, 'इससे तुम्हें क्या लाभ होगा?
मिंटू ने कहा था, 'हर तरह के लाभ क्या दृष्टिगोचर होते हैं अरुणदा? फिर भी याद तो कर सकूँगी कि मैंने एक पत्थर को दिल नहीं दिया था।'
पहली बार इतने स्पष्ट शब्दों में आत्म प्रकाश किया था मिंटू ने।
'सचमुच मैं एक कापुरुष हूँ। कायर हूँ मिंटू।'
‘सचमुच ही एक पत्थर हो तुम।'
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