उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
ऊपर आते ही माँ बोल उठती हैं, "ओ माँ ! तू आ गयी है?” एकाएक देखकर मैं चौंक उठी थी।
लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं हुआ।
सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते ही उसने सुना, माँ कह रही हैं, “बाहर से ही जरा गुस्सैल और जिद्दी थी, उसका मन भीतर से अच्छा था।"
समझ गयी, चाची का प्रसंग छिड़ा है। माँ की आवाज़ में खुशामद का पुट था।
यह भी एक रहस्य है। माँ जाने क्यों उनसे इसी तरह बातें करती हैं। मन रखते हुए हर बात को करती हैं तो ब्रतती को आश्चर्य होता है।
चाचा की आवाज सुनायी पड़ी। लम्बी साँस छोड़ते हुए वोले, “अव तो ऐसा ही लगता है। तुम तो उसे हमेशा से ऐसा समझती थीं।"
माँ का विषादपूर्ण स्वर उभरा, “भरापूरा घर छोड़कर चली गयी। कितना शौक़ था, कितने अरमान थे।"
“हाँ, कहा था इस साल दशहरे की छुट्टियों में कहीं घुमाने ले चलना होगा।"
"दुनिया के किसी स्थान पर जाना नहीं हुआ।"
ब्रतती समझ गयी पुरानी बातें दोहरायी जा रही हैं।
विषाद और वेदनापूर्ण दार्शनिक युक्तियाँ।
ब्रतती बरामदे में बैठे दोनों बच्चों के पास गयी और बैग से निकालकर दो चॉकलेट बढ़ा दिये।
"ओ माँ ! दीदी।"
"ईश दीदी ! तुम कितनी अच्छी हो ! आज फिर चॉकलेट ले आयी हो। अभी तो परसोंवाला ही रखा है।”
“अरे ! क्या कह रहा है? चॉकलेट क्या कोई रख देने की चीज है?"
पिताजी ने जो कहा, “पूरा खा जाओगे क्या?
"दुर ! पूरा तो खाना ही था।"
अब चाचा बोल उठे, “रोज-रोज-फालतू खर्च क्यों करती है बेटी?"
“फ़ालतू खर्च कहाँ? चॉकलेट तो बच्चों की चीज़ है।"
माँ चौके से निकल आयी।
उनके हाथ में पकड़ी प्लेट में नाश्ता लगा था।
चाचा के सामने रखकर बोल उठीं, “तू आ गयी है, अच्छा ही हुआ है। आ, गरम-गरम दाल की पकौड़ियाँ बना रही हूँ तेरे चाचा को लाई के साथ खाना पसन्द है ...अच्छा लगे तो भई और माँग लेना।” आखिरी वाक्य चाचा के लिये था।
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