लोगों की राय

उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

Like this Hindi book 0

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

सौम्य ने फिर पूरे कमरे का चक्कर लगाया। "लाबू बुआ का और कोई नहीं है न?”

"न।"

"तब फिर कहो न बुआ को साथ ले आये और यहीं रहे। नीचे के कमरे तो खाली ही पड़े हैं। तुम्हें भी बढ़िया एक कम्पनी मिलेगी।"

प्रवासजीवन लड़के की इस बच्चों जैसी बात पर ज़रा हँसे। बड़े-बूढ़ों की तरह बातें करना सीख गया है।

बोले, “तुम्हारी यह बात वास्तव में बुद्धिमत्तापूर्ण हुई क्या बेटा?”

“वाह, क्यों नहीं? ऐसे क्या कोई रहता नहीं है? चाहे तो वह सेप्रेट व्यवस्था माने विधवा हैं न इसलिए। ...एक बार कहने में हर्ज़ क्या है? तुम इस तरह से कहना जैसे अपने फ़ायदे के लिए कह रहे हो।"।

प्रवासजीवन के मन में प्रसन्नता की बिजली कौंध गयी। हालाँकि क्षणिक ही थी वह प्रसन्नता।

बेटे की ओर धुंधली दृष्टि डालकर बोले, “बुला लाऊँ और आदर-सम्मान के साथ रख सकूँगा इस बात की क्या मैं गारण्टी दे सकता हूँ?"

सौम्य चुप हो गया।

सौम्य की आँखों के आगे लिपस्टिकयुक्त होंठों पर व्यंग्य और विद्रूप भरी रेखा स्पष्ट हो आयी।

सौम्य की आँखों ने अपनी अनुपस्थिति में घर की शून्यता को स्पष्ट रूप से देखा। और बुद्धिमान सौम्य सहसा एक मूर्खों जैसी बात कह बैठा।

"लगता है देबू ने ही तुम्हें डुबो दिया।" सुनते ही प्रवासजीवन जी खोलकर हँसने लगे।

बोले, “तब फिर मान रहे हो न कि शॉकराइल गाँव का देबू माइती केयातला के प्रवासजीवन को डुबोने की क्षमता रखता है। हा...हा...हा...हा।...।

सौम्य भले ही अप्रतिभ हुआ हो, जोर देते हुए बोला, “मेरे कहने का मतलब है उसने असुविधा में डाल दिया है। हर वक्त कहता था न कि बाबूजी के रहते मैं यह घर कभी नहीं छोडूंगा। और अब गाँव से लिख रहा है कि वापस नहीं लौटूंगा। गाँव में ही खेती-बाड़ी करेगा।

"तुम कुछ भी कहो यह उसने ठीक नहीं किया है।"

प्रवासजीवन बोले, “यह तो हम कह रहे हैं न। लेकिन एक बार उसकी तरफ़ से भी सोचकर देखो। इन्सान तो वह भी है न ! यहाँ ऐसी क्या नौकरी थी, क्या पोजीशन थी? बाबू के घर का खिदमतगार ही तो था। जते झाडता-पोंछता था। और वहाँ? पूरा का पूरा एक इन्सान। शादी में ससुर ने उसे दो बीघा जमीन दी है जिसमें साल में दो फ़सल पैदा होती हैं। ससुर के कोई लड़का नहीं है-लड़के का मान वहाँ से भी मिलेगा। वहाँ माँ, भाई, घर, नयी ब्याही बहू है और है दामाद का लाड़-प्यार। हाहाहा। ज़रा-सी बात निभाने के लिए गुलामी करने लौट आयेगा?"

ये खबर सौम्य ने बड़े पक्ष से सुनी थी। दिव्य ने कहा था, “इसके मतलब बाबू घरजमाई बनने गये हैं, समझा सौम्य।”

और चैताली बोली थी, “हुँ। बल्कि यह कहो कि ससुर के खेत में बिना मजदूरी के मजदूरी करने गया है।"।

फिर भी देबू के न लौटने से किसी और को असुविधा नहीं हो रही थी सिवाय प्रवासजीवन के।

प्रवासजीवन बोले, “तेरा भाई तो ऐसा गुस्सैल है कि उससे एक सलाह माँगना मुसीबत मोल लेना है। तेरा दिमाग ठण्डा रहता है इसीलिए तुझसे सलाह माँगने बैठा तो तूने कह दिया मेरा दिमाग ख़राब है। इसमें नुकसान क्या था, बता ज़रा?'

सौम्य ने ज़रा देखा, फिर गम्भीर भाव से बोला, “नुकसान तुम्हारा होता या नहीं, यह नहीं जानता हूँ लेकिन तुम्हारे लड़कों का नुकसान होता। वे दूसरों के सामने मुँह दिखाने लायक नहीं रहते।"

प्रवासजीवन ने लम्बी साँस छोड़ी। बोले, “तूने भी शादी-वादी नहीं की। घर में एक और बहू रहती तो..” .

कहते-कहते सहसा चुप हो गये प्रवासजीवन। सर्वनाश ! क्या कहने जा रहें थे? भल ही गये थे कि दीवारों के भी कान होते हैं।

सौम्य पिता के अचानक चुप हो जाने के कारण हँसकर बोला, "तब तो हालत और गम्भीर हो जायेगी।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai