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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

23


'भवेश भवन' के सामनेवाले दरवाजे से भीतर घुसने के लिए तीन सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। उन्हीं सीढ़ियों में से ऊपरवाली पर वह लड़का बैठा था। दुबला-पतला, सिर पर उलझे हुए बाल, एक बेहद फटी बिना बाँहवाली बनियान और वैसा ही हाँफ पैण्ट। उम्र होगी कोई आठ साल। ठीक उसके सिर के ऊपर, दरवाजे पर बड़े हरफों में कागज़ पर 'भवेश भवन' लिखकर चिपकाया गया था। यह काम भी उसी पागल सुकुमार का था।

प्लास्टर निकले, रंग उड़े दो कमरों के इस मकान का ऐसा भड़कीला नामकरण किया है उसने। सभी देखकर हँसे थे लेकिन इससे उसके उत्साह में कोई कमी नहीं आयी थी।

सौम्य ने 'भवन' में प्रवेश करते समय ही लड़के को देखा। इस घर की चाभी सामने चायवाले के पास रहती है। जो या जितने लोग अन्त में जाते हैं वे ही ताला बन्द करके चायवाले को चाभी दे जाते हैं। दूसरे दिन जो पहले आता है चाभी माँगकर दरवाजा खोलता है।

आज सौम्य पहले आया है। लड़का दरवाज़ा रोके बैठा हुआ था। सौम्य ने पूछा, “कौन हो भई?'

लड़के ने कोई जवाब नहीं दिया-सिर्फ थोड़ा-सा एक तरफ़ को सरक गया जिससे प्रवेश के लिए इच्छुक व्यक्ति सीढ़ी पर पैर रख सके।

परन्तु सौम्य ने उस संकीर्ण जगह पर पाँव नहीं रखा। फिर पूछा, “क्यों रे? कौन है?

लड़का खिसियाहट भरी आवाज़ में बोला, “और कौन होगा? देख नहीं रहे हो? इन्सान का पिल्ला हूँ।"।

"इन्सान का पिल्ला?” हो-हो कर हँसने लगा सौम्य-“इन्सान का पिल्ला क्या होता है रे? कुत्ते का पिल्ला तो सुना है लेकिन इन्सान का.."

“ओफ्फो, गलती हो गयी है-देख तो रहे हो इन्सान हूँ।"

“तो यहाँ क्यों बैठा है?"

सहसा लड़का बिगड़ पड़ा। बोला, “क्यों? बैठना मना है क्या? यहाँ बैठने का नियम नहीं है? घर के बाहर का हिस्सा पब्लिक प्लेस नहीं है?"

“अरे शाबाश !" उस छोटे-से लड़के के भीतर आग की ज्वाला देखकर सौम्य चौंक उठा।

बोला, "तू इतना-सा लड़का है, ऐसी बड़ी-बड़ी बातें क्यों कर रहा है रे? देख तो रहा है मुझे भीतर जाना है।"

"तो जाओ न ! मना कौन कर रहा है?"

"जरा खिसक तो सही।"

लड़का किनारे तक खिसक गया लेकिन उठा नहीं। शायद उठने पर प्रेस्टिज को धक्का लगता।

मज़बूरन ऊपर-नीचे की दो सीढ़ियों पर पैर रखकर सौम्य ने दरवाज़ा खोला और भीतर घुसा। फौरन लड़का भी खिसककर बीचोंबीच आ बैठा।

दरवाजे के पास से ही तख्त पर चढ़ना पड़ता है। तख्त के नीचे चप्पल-जूता रखकर सभी ऐसा करते हैं। सौम्य भी चढ़कर बैठ गया। लड़का कनखियों से देख रहा था। सहसा फिक् से हँस दिया।

सौम्य बोला, “क्यों हँसा तू?'

"क्यों? हँसना मना है क्या?"

बाप रे, ये तो विषधर नाग लगता है !

सौम्य ने फिर कुछ नहीं कहा। तख्त पर एक छोटे-से पत्थर के टुकड़े से दबे कागज़ को उठा लिया।

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