उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
“हि हि हि हि, हमने देखा है। तुमने रुपया दिया है। दस-बीस रुपया। वह तो भिखारी है क्या कोई भिखारी को इतने सारे रुपये देता है? दस-बीस पैसे देने चाहिए थे। तुम हो बुद्धू..."
और एक बार ...उस दिन।
कितनी सावधानी से अपने ओढ़े हुए शॉल में छिपाकर एक पुराना चादर ले जाकर पार्क में बैठे उस अधपगले गरीब इन्सान को दे बैठे थे। बेचार हड्डियों का ढाँचा मात्र था। उस दिन देबू भी साथ नहीं गया था। लेकिन यह किसे मालूम था कि पार्क के किनारे से भूषण लौट रहा होगा।
दूसरे दिन दिव्य ने सुना-सुनाकर कहा था, “घर की चीज़ आप जिसे चाहें दे सकते हैं, पिताजी। लेकिन छिपाकर न देते तो ठीक होता। इससे औरों के सामने प्रेस्टिज नहीं रहती है।”
शर्म से प्रवासजीवन गड़ से गये थे। बोले थे, "छिपाने की क्या बात है? पागल को देखकर दया आती थी। रोज़ ही सोचता था कि आलमारी में पुराने चादर, पुरानी शालें पड़ी हैं, कीड़े लग रहे हैं-बेचारे को दूंगा तो.” ज़रूरत से ज़्यादा ही बोल बैठे थे प्रवासजीवन।
दिव्य बोल उठा था, “रहने दीजिए। मुझे कैफ़ियत देने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन घर में इससे भी ज़्यादा पुरानी चीजें थीं, वह दी जा सकती थीं। उसे तो भूषण ओढ़ सकता था। उसे जाड़े के लिए एक चद्दर देना पड़ गया।"
प्रवासजीवन में इतना पूछने की क्षमता नहीं थी कि अपनी ही एक पुरानी चीज़ वह स्वयं उठाकर किसी को नहीं दे सकते हैं क्या? क्यों नहीं दे सकते हैं?।
वे कह ही नहीं सकते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके पाँव के नीचे की मिट्टी बेहद भुरभुरी है। ज़रा पाँव का दबाव डालेंगे तो धंस जायेंगे।
यह सवाल तक न पूछा गया उनसे कि अगर जाड़े के नाम पर भूषण चादर पा सकता है तो देबू क्यों नहीं?
ऐसा न कहकर मूों जैसा मुँह बनाकर बोले, “अरे, उससे भी ज्यादा पुरानी चीज़ थी क्या? छिः-छिः, पहले मालूम होता... पागल वैसे खूब खुश हुआ है।"
“होगा क्यों नहीं? एक ऑल-वूल का चादर पा गया। आपका यह कश्मीरी शॉल पाता तो और भी ज्यादा खुश होता।”
व्यंग्य ! हर समय व्यंग्यबाण छोड़ता है। इसी डर से तो प्रवासजीवन सच बात कहने, न्यायपूर्ण बात कहने का साहस खो बैठे हैं। कहते हैं तो और अधिक तीखे बाण छोड़ता है। और अधिक डंक मारता है।
जबकि बहुत दिनों पहले, प्रवासजीवन ने कहा था, “तुम्हारी सास की आलमारी एक बार खोलकर देख लो चैताली। पुरानी-पुरानी कुछ रोज़मर्रा की साड़ियाँ पड़ी हुई हैं-अगर गरीब लड़कियों को देना चाहो तो निकाल लो। आलमारी के ऊपर ही चाभी रखी है।"
चैताली ने एक क़दम नहीं बढ़ाया। बल्कि बोली थी, “मैं क्या खोलूँगी, आप ही कभी देख लीजिएगा। किसी को देना चाहें तो दे दीजिएगा।"
इस पत्थर के दुर्ग में कहाँ किस जगह दरवाज़ा है प्रवासजीवन को पता नहीं।
कभी-कभी अपना ही बनाया यह घर, अपने हाथों से बसायी गृहस्थी उन्हें कैदखाने जैसी लगती। लगता कहीं और चले जा सकते तो कितना अच्छा होता। लेकिन हृदय-रोग-ग्रस्त एक इन्सान अकेले जाये तो कहाँ जाये?
जिन्दगी में कभी साधु-सन्त, मठ-मिशन, तीर्थ आदि में रुचि नहीं ली। यह भी नहीं जानते हैं कि कम से कम कुछ दिनों के लिए कहीं और जाकर रहना असम्भव नहीं। प्रवासजीवन ने तो कभी 'गुरु' भी नहीं बनाया।
आज वे अपने को अपने ही बनाये दायरे में कैद पाते हैं। कभी-कभी सोचा करते हैं देबू को साथ लेकर पुरी या कहीं और घूम आयें तो कैसा रहे ! इन जगहों में तो रहने की जगह का अभाव नहीं। लेकिन यह बात सबसे कहें कैसे-यही सोचते-सोचते देबू शादी करने जाने की छुट्टी लेकर चला गया।
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