उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
“एक बात कहनी थी बाबूजी।"
"क्या?
देबू सिर खुजलाते हुए बोला, “मेरी माँ को पगली कहना ठीक होगा। जो कुछ ठान लेती है... बस उस पर अड़ ही जाती है। इस वक्त ज़िद किये बैठी है बेटे का ब्याह करेगी।"
"बेटा? माने किस बेटे की? तेरी तो नहीं?"
“वही तो बात है।”
बहुत दिनों बाद प्रवासजीवन दिल खोलकर हँसे। “हा हा हा ! तेरी अभी शादी? तेरी उम्र क्या होगी?'
“वही तो है बाबूजी। चौबीस साल पूरी कर चुका हूँ।”
"भाग। इस उम्र में आजकल कोई शादी नहीं करता है?"
प्रवासजीवन ने जिस लड़के को इस तरह निरुत्साहित करते हुए कहा, वह क्या केवल 'आजकल' के नियमों से परिचित करने के लिए? देबू की शादी की बात सुनते ही प्रवासजीवन का दिल धक से थम नहीं गया था? तभी नहीं लगा था 'लो. कुछ दिनों के लिए यह लड़का गायब हो जायेगा तो यह रोज़-रोज़ का खेल भी बन्द हो जायेगा।
यह वही प्रवासजीवन हैं। जो कभी एक बड़े ऑफिस के बहुत बड़े अफ़सर थे। लोग सेन साहब के नाम से तटस्थ हो जाते थे। और जिन्होंने कभी केयातल्ला का यह बड़ा भारी सुन्दर मकान बनवाया था। वह भी स्वोपार्जित धन से। अवकाश ग्रहण करने के बाद भी जिनका मकान दोस्तों, परिचितों, परिवारवालों के कलकण्ठ से अष्टप्रहर मुखरित रहता था।
वही प्रवासजीवन।
एक भृत्यमात्र की विरह आशंका से व्याकुल हो रहे हैं।
यद्यपि देबू इस व्याकुलता को ठीक से समझ नहीं सका।
बोला, “हमारे गाँवों में तो जल्दी शादी का रिवाज़ ही है। फिर माँ इस वक्त रुपये के लालच में फँसी है।"
“रुपये का लालच? कैसा रुपयों का लालच?"
सिर झुकाकर कुछ शर्माई आवाज़ में देबू बोला, “क्यों, दहेज़ का रुपया। चाचा आये थे, कह रहे थे लड़कीवाले आठ हजार रुपया नकद देंगे। अगर न दे सके तो दो बीघा धानवाली जमीन लिख देंगे। वैसे माँ चाचा नक़द पर ही जोर डाल रहे हैं।"
प्रवासजीवन अवाक् होकर बोले, “नक़द आठ हजार देकर तेरे साथ शादी करेंगे? तू कह क्या रहा है?"
इस प्रश्नबाण से देबू आहत हुआ। शायद अपमानित भी।
बोला, “देंगे क्यों नहीं? लोग तो और भी ज़्यादा-ज्यादा पाते हैं। मेरे ताऊ को ही लड़के की शादी में आठ हज़ार मिले थे। अभी बुआ ने लड़की की शादी में बारह तेरह हज़ार रुपये खर्च किये हैं।"
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