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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

12


यह मकान दादा का बनवाया था इसलिए ब्रतती के बाप-चाचा का इस पर समान हक़ होना स्वाभाविक बात थी।

ब्रतती के बारह साल की उम्र तक उसकी दादी भी ज़िन्दा थीं। उस समय तक रसोई भी एक ही थी। एक बड़ी-सी बटुई में पूरे घर का भात पकता था।

खैर, वह तो एक युग पुरानी बात है। अब ब्रतती छब्बीस साल की है।

दादी के मरते ही वह बड़ी बटुई माँज-धोकर ऊँचे ताखे पर रख दी गयी। क्योंकि चाचा ने एक दिन आकर ब्रतती के पिताजी से कहा, “भइया ! मैं सोचता हूँ खाना सेप्रेट बनाया जाये तो ठीक रहे।"

भइया का मुँह खुला का खुला रह गया, “खाना सेप्रेट?'

"हाँ-हाँ। इसमें आश्चर्य की क्या बात है? ऐसा कहीं कभी देखा नहीं है क्या? घर में आजकल जैसा खाना बन रहा है उसमें प्रोटीन की मात्रा तो कुछ खास रहती नहीं है। पेड़-पौधों की संख्या ही अधिक रहती है। इसके अलावा तेल, मसाला, मिर्च तो पड़ता ही नहीं है। कोई कहाँ तक मरीज़ों जैसा खाना खा सकता है?

भइया फिर भी कातर भाव से बोले थे, “तो तू अपनी भाभी से कहता क्यों नहीं है कि खाना बढ़िया बनाये? "अच्छा रहने दे मैं ही कह देता हूँ..."

चाचा बोले, “रहने दो उसका कोई नतीजा नहीं निकलेगा। अलका ने भी जनता स्टोव वगैरह सब मँगवा लिया है।"

तब से दादी के समय के निरामिष रसोईघर में ब्रतती लोगों का खाना बना करता है। ब्रतती अपने लिए मछली नहीं पकाने देती है माँ को। पेड़-पौधे खाकर माँ-बेटी मजे से रह रही हैं।

माँ बार-बार टोकती हैं तो ब्रतती कहती, “अरे माँ, मन करेगा तो बाहर खरीदकर खा लूँगी। खाती भी तो हूँ। टिफिन के वक़्त चाय के साथ उबला अण्डा लेती हूँ। परन्तु यह किसने कह दिया कि पेड़-पौधों में प्रोटीन नहीं हैं? समझ-बूझ कर खाया जाये तो ढेरों प्रोटीन खायी जा सकती है।"

लेकिन लड़की बिन ब्याहे घर में बैठी रहे, माँ के साथ घास-पात खाये यह किस माँ को अच्छा लगता है?

ब्रतती कहती, “हर लड़की की ज़िन्दगी क्या एक ही ढाँचे में ढला होना ज़रूरी है माँ? क्यों हम लोग मज़े में नहीं हैं क्या?"

"मैं क्या जिन्दगी भर बैठी रहँगी??

"तब तक तो मैं भी बूढ़ी हो जाऊँगी। अकेले रह सकूँगी। घर से तो निकालने का कोई डर है नहीं।"

ब्रतती ने कमरे में आकर देखा, माँ खिड़की की तरफ़ मुँह किये एक स्टल पर बैठी है।

कमरे में घुसते ही बोली, “माँ, बेहद भूख लगी है।” ब्रतती को पता है माँ का क्रोध शान्त करने की यह अचूक दवा है। लेकिन आज न तो माँ खिड़की के पास से उठीं, न बोलीं।

माँ के पास आकर बोली, “लगता है माँ, तुम आज खपचूरियस हो? शायद ‘छोटे तरफ' ने खूब रुई धुनी है।”  

अब माँ ने इधर मुँह घुमाया। बोली, “अगर रुई धुनी भी है तो तुम्हारे गुणों के कारण। तुम बिनब्याही लड़की देर रात तक घूमा करोगी."

“माँ”, ब्रतती ने शान्त स्वर में कहा, “तुम जानती नहीं हो मैं कहाँ जाती हूँ?"  “मेरे जानने से क्या होता है?” माँ हताश स्वर में बोली, “वे लोग इसी बात को लेकर हँसी-मज़ाक करते हैं। कहते हैं लड़की पतितोद्धार कर रही है।"

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