उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
हाँ, चाचा नहीं चाचाई। प्रनति थीं तब थीं हर जगह व्याप्त-शरीर और आत्मा की तरह। इसीलिए जब पोती ने पहली बार अपने पिता को 'बापी' पुकारा वह बोल उठी थीं, “अरे ‘बापी' नहीं, बापी नंहीं-पुकारना है तो 'बाबाई' पुकार। यही सबसे अच्छा नाम है।"
काटुम ने बाबाई पुकारना शुरू किया और छन्द मिलाकर चाचा को भी 'चाचाई' पुकारने लगी।
प्रायः प्रवासजीवन सोचा करते, ये तीनों यहाँ, इस कमरे में भी तो आकर हल्ला मचा सकते हैं।
लेकिन 'ये लोग' ऐसा नहीं करते हैं। वे अपनी ही परिधि में रहते हैं।
इधर इच्छा होने पर भी प्रवासजीवन अपने चिर अभ्यस्त दायरे से बाहर निकलकर, घर के किसी दूसरे कमरे में आ नहीं पाते हैं। वे चाहें तो जीवन का स्वाद बदलने के लिए इधर आ सकते हैं। परन्तु ऐसा कर कहाँ पाते हैं ! उस पर हार्ट पेशेण्ट हैं, यह मुहर भी उन पर लग चुकी है। इधर आजकल पाँव में बादी का दर्द रहने क्या लगा, कमरे में कैद होकर रह गये हैं।
घर का सबसे ज्यादा हवादार कमरा है उनका। जब कमरा बन रहा था प्रनति ने ही प्लान से अधिक खिड़कियाँ बढ़वा दी थीं। और जिस ओर बरामदा रहने की कोई बात नहीं थी उधर 'ब्रैकेट बॉल्कनी' बनवाकर मानी थीं।
उस समय प्रवासजीवन ने कहा था, “अगर सारी दीवाल खिड़की, दरवाजे ही खा लेंगे तो अलमारी, किताबों की रैक कहाँ रखोगी?"
"मेरे सिर पर।” कहकर हँसने लगी थीं।
कब की बात है ये? तब शायद दीबू क्लास टेन में पढ़ता था और सुमू क्लास फोर में।
गृहिणी होकर भी गम्भीर नहीं हो सकी थीं। हँसने का रोग था उन्हें।
ओफ़ ! आज अगर प्रनति होती तो इस साधारण-सी चिट्ठी के मसले को लेकर प्रवासजीवन को इतना सोचना पड़ता?
शॉल कन्धे से झटककर उतार दिया था। खिड़की से ठण्डी हवा का झोंका आ रहा था लेकिन बुरा नहीं लगा। चिट्टी का कोना मेज़ पर हल्के हाथ से ठोंकने लगे अनमने होकर। फट से ये बात कैसे बतायी जाये?
चैताली कमरे में आयी।
पीछे भूषण। भूषण के हाथ में स्टेन्लेस स्टील की ट्रे उस पर प्रवासजीवन की चाय, थोड़ा छेना और दो क्रीम क्रैकर बिस्कुट।
ट्रे सामने रखकर भूषण चला गया। चैताली पास रखी बेंत की कुर्सी पर बैठी। बेहद ‘ड्यूटी' के प्रति सचेत लड़की है चैताली। जब से प्रवासजीवन को कमरे में चाय-नाश्ता करने के लिए डॉक्टर ने कहा है तब से सुबह-शाम वह भूषण के साथ आती है। खाना समाप्त होने तक वहीं बैठी रहती है।
वास्तव में कहना पड़ेगा कि चैताली ही प्रवासजीवन और इस गृहस्थी के मध्य सेतु का काम कर रही है।
इस समय चैताली से उनकी छिटपुट बातें होती हैं। उन्हीं बातों के माध्यम से घर की घटनाओं से अवगत हो लेते हैं।
परन्तु लंच और डिनर वे यहाँ बैठकर खाने को तैयार नहीं।
वैसे भी अब पहले की तरह डाइनिंग रूम निचली मंजिल में है कहाँ? प्रनति के जाने के कछ दिनों बाद ही प्रनति का इतने अरमानों का 'खाने का कमरा' खाली करके मेज, की, फ्रिज. साइड बोर्ड वगैरह लाकर ऊपरवाले हॉल को, डाइनिंग रूम में बदल दिया गया। बल्कि बीच से एक हल्का पार्टीशन लगाकर एक तरफ ड्राइंगरूम भी बना लिया है। बार-बार कौन ऊपर-नीचे करेगा। बच्चे भी तो जाना नहीं चाहते हैं। कैसा खाली-खाली लगता है नीचे। आश्चर्य लगता है, अकेली प्रनति ही सारे घर में जान फूंके रहती थीं।
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