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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

7


उनका एक संगठन है।

उसके बावद एक कमरा भी है। कमरा है उनके दीक्षादाता भवेशदा का। भवेशदा का यह पैतृक घर है-उत्तराधिकार में मिला मकान। वैसे वे पैतृक धन-वन पानेवाले नियम के घोर विरोधी हैं। लेकिन घर छोड़कर कहीं चल देने का आइडिया भी उन्हें आज तक जमा नहीं।

छोटा-सा मकान। बहुत ही छोटा।

उसी के एक कमरे में स्वयं रहते हैं, दूसरे में आकर लड़के इकट्ठा होते हैं। एक-आध लड़कियाँ भी आती हैं। खूब बड़ी-बड़ी आदर्शपूर्ण बातें करते हैं ये लोग।

भवेश के यहाँ किसी को चाय-वाय नहीं मिलती है।

वह खुद ही एक सस्ते होटल में खाना खाता है और सामनेवाली चाय की दुकान पर व्यवस्था कर रखी है। उसी दुकान का एक लौंडा नौकर पिचकी, काली हो गयी एल्यूमिनियम की केतली में गरम चाय और नन्हे-नन्हे कुल्हड़ लेकर आता भवेश तो अपने पहले प्रयोग में लाये कुल्हड़ में काम चला लेता है और लोग रहते हैं तब कुल्हड़ लिये जाते हैं। शाम को कोई-न-कोई रहता ही है। परन्तु बुधवार और शुक्रवार की शाम को लोगों की संख्या कुछ अधिक हो जाती है। लड़के को दोबारा केतली में चाय भरकर लानी पड़ती है।

परन्तु यहाँ सब-कुछ भी फ्री में नहीं मिलता है। भवेश की नीति है 'पैसा फेंको मौज़ उड़ाओ'। जो पैसा देगा वही चाय पीएगा।

इनके संगठन का लक्ष्य है देश से 'शिशु श्रमिक प्रथा' का उन्मूलन करना।

कभी भवेश ने ऊँचे स्तर की राजनीति में भाग लिया था। आजकल अपने को उससे अलग कर लिया है। अब जिसमें जी-जान से जुट गया है, जिसके लिए कुछ 'भक्त' अथवा 'चेले' हो गये हैं उसे राजनीति कहो तो राजनीति, हृदयनीति कहो तो हृदयनीति।

समाज की कुरीतियों को, अमानवीय कुप्रथाओं को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए सबसे पहले तो जिस चीज़ की ज़रूरत है वह है 'हृदय'।

उसके बाद क़ानून के लिए लड़ाई।

लेकिन यहाँ तो क़ानून बनवाना भी नहीं है। क़ानून बना बनाया है।

बहत पहले ही 'बाल श्रमिक' प्रथा को गैर-कानूनी करार दे दिया गया है। जिस तरह ‘दहेज प्रथा' को वैसे समाज की अनेकों कुप्रथाओं को जड़ समेत उखाड़ फेंकने के लिए कानूना की कमी नहीं है। लेकिन क़ानून ही तो सब कुछ नहीं है न, उसका पालन भी तो होना चाहिए।

इसी को कार्यरूप में परिणत करने के लिए संगठन की आवश्यकता है।

भवेश ने कहा था, “पहला काम है चेतना जागृत करना। न"जो मेहनत करवाते हैं केवल उन्हीं में नहीं, जो खटते हैं उनमें भी। उनके माँ-बाप को, उनके अभिभावकों को बताना होगा कि यह पाप है। लेकिन कितनों के माँ-बाप हैं? अभिभावक हैं?'

जो बच्चे रेल लाइन के किनारे कोयला बटोरते-बटोरते दब मरते हैं, जो चोरी करते समय मार खा-खाकर मर जाते हैं, जो कारखानों में चवन्नी के बदले में एक आदमी का पूरा काम करते-करते भूखे-प्यासे, तड़प-तड़पकर मर जाते हैं उनके कहाँ हैं माँ-बाप?

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