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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2100
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

इसीलिए बोली, “सभी कुछ तो मेरी पहुँच के बाहर है, यहीं एक जगह हारे रहो न। खैर, बताओ इस वक़्त क्या लोगे? चाय? या कि कॉफी?"

"कुछ नहीं। पार्टी में यह चीजें कई बार पी चुका हूँ।"

साथ ही बड़े भोलेपन से कहा, "जो खाना चाहता हूँ उसे तो दोगी नहीं। कहोगी, ‘एई, वहाँ वेंकटेश्वर है', 'एई बाग में त्रिचुरेश्वर है' 'अरे-अरे पेड़ पर दो चिड़ियाँ बड़ी-बड़ी आँखें निकाले हमहीं को देख रही हैं।"

मिंटू हँसने लगी।

किंशुक के कहने के ढंग पर हँसे बगैर रहा भी तो नहीं जाता है। किंशुक बोला, “यहाँ आओ। डरो नहीं, दो फुट दूर बैठोगी तो भी चलेगा। तुम्हारे लिए एक जबरदस्त सरप्राइज है।"

मिंटू पास सरक आयी।

“बात कुछ है या फिर कोई चालाकी का नमूना पेश कर रहे हो?'

किंशुक बोल उठा, “चालाकी? हाय-हाय। क़स्बे की लड़की के हाथों मेरी यह दुर्दशा? ओफ़ ! काश तुम्हें मैं दफ़्तर ले जाकर दिखा सकता। वहाँ चौधरी साहब की क्या पोजीशन है"खैर अब तुम आँखें तो बन्द करो।"

“आँखें बन्द करूँ?'

“हाँ, आँखें बन्द करके हाथ फैलाना होंगे।"

मिंटू ने समझा, ज़रूर हाथ फैलाने पर एक चॉकलेट रख देगा किंशुक।

आँखें बन्द कीं। हाथ फैला दिये।

लेकिन यह क्या?

मिंटू ने अवाक् होकर हाथ पर रखे डाक से आये लिफ़ाफ़े की ओर देखा। किसके हाथ की लिखाई है?

'प्रेषक' के स्थान पर किसका नाम है?

सारा शरीर मानो भूकम्प का झटका खाकर थर-थर काँपने लगा, फिर भी उसने भीतर हो रही उथल-पुथल को शान्त और संयत कर लिया। चिट्ठी बगल में रखकर किंशुक की फेंकी टाई उठाकर तह करने लगी।

किंशुक को जो समझना था उसने समझ लिया।

फिर भी बोला, “क्या हुआ? ‘गाँव के रिश्तेदार' की तरह अवहेलनापूर्वक एक तरफ डाल क्यों दी?"

मिंटू ही क्यों हार मान ले?

बोली, “देख तो रहे ही हो प्रेमपत्र है। मैं क्या भरी महफ़िल में पढ़ने बैठ जाऊँ?"

"ओ ! बात तो सच है। सॉरी। निराश प्रेमी के हृदय का उच्छ्वास है। अच्छा तब तक जाकर नहा लूँ। तुम एकान्त निर्जन में...'

फिर हँसकर बोला, "लेकिन उन महाशय को सरल स्वभाव का कहना पड़ेगा। मिसेज़ चौधरी को लिखा प्रेमपत्र मिस्टर चौधरी के केयर में, उन्हीं के दफ़्तर के पते पर भेज रहे हैं।"

मिंटू ने आँख उठाकर देखा।

बोली, “सरल है या नहीं यह तो नहीं जानती हूँ परन्तु मेरे साथ एक शरीफ़ इन्सान का विवाह हुआ है इस बात पर उसने विश्वास किया है।"

किंशुक अलगनी से धुला कुर्ता-पैजामा लेकर जाते हुए, दीर्घश्वास छोड़ने की-सी मुद्रा बनाकर बोला, “माँ मेरी, ज़रा आकर क़स्बे से लायी इस लड़की को देख जाओ।"

चिट्ठी देते समय उसका दिल कह रहा था मिंटू ज़रूर रोयेगी। और रोना स्वाभाविक ही है।

उदासी, रोना-धोना वह बिल्कुल बरदाश्त नहीं कर सकता है इसीलिए वह मुक़ाबिला करने से क़तराता भी है।

चला गया।

कुछ देर तक नहाता रहेगा।

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