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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ


''तुमसे बातें करने से अच्छा है कि दीवार से ही बातें कर लूं। मर्जी होती है कि लड़की को लेकर कूम नदी में जा डूब मरूं। तुम्हें तो शर्म है नहीं...क्या हमारी भी शर्म मारी गई है? पांच मिनट की ही तो बात है...सांस रोको कि इस दुनिया के बन्धन टूटे। देख क्या रहे हो?''

मुनुस्वामी खांसा। उसने अपनी पत्नी की ओर देखा-कुछ कहना चाडा, पर उसको गरजता देख सहम सा गया। आंखें नीची कर लीं। शायद उसको जवानी के दिन याद आए, जब शराब के नशे में वह पत्नी की पीठ पर अच्छी-खासी बेंत तोड़ देता था। बिना बेंत के उसकी जबान काबू में न आती थी। उम्र के साथ पत्नी की जबान और भी तेजाबी हो गई थी।

''अगर मैं ही मर्द होती, तो भीख मांग कर भी अपनी लड़की की शादी करती। भले ही फांके करने पड़ जाते, पर बड़ी लड़की को घर में नहीं रखती। यहां तो नौबत यह आई है कि फांके भी हो रहे हैं और लड़की भी घर में पड़ी है। चूड़ियां क्यों नहीं पहन लेते? किसान की लड़की हूं, कोई कहारिन नहीं हूं कि दिन-रात दूसरों के बर्तन मांजूं। घर में खाना हो या न हो, मैं दूसरों के घर काम करने नहीं जाऊंगी सुनते क्यों नहीं हो? कान खोल कर सुनो। घरवाली को खिलाना-पिलाना मर्द का काम है, न कि घरवाली का काम मर्द को खिलाना। कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे?''

मुनुस्वामी वहां बैठा न रह सका। उसने अपनी अधजली बीड़ी सुलगाई और बाहर जा बैठा। पत्नी आग होती जाती थी।
''घर में दो पैसे भी नहीं, नहीं तो मैं कहीं एक छोटी-मोटी दोसे (दक्षिण-भारत का एक पकवान) की दुकान ही खोल लेती।....मेरे बस की बात नहीं कि तुम्हें मैं चावल परोसती रहूं। बेशर्म तो हो ही, भीख ही क्यों नहीं मांगते?''
मुनुस्वामी को बेहद गुस्सा आया। वह उठा और पत्नी के बाल पकड़ कर खींचने लगा-पीठ पर दबादब मारने लगा।
''अगर इतने मर्द हो, तो काम क्यों नहीं करते? औरतों पर ही यह मर्दानगी दिखानी आती है?'' वह बकती जाती थी और मुनुस्वामी मारता जाता था। वह आखिर थक-थका कर बाहर आकर बैठ गया। पत्नी भी सिसकती-सिसकती सो गई। जब मुनुस्वामी सबेरे उठा, तो उसका तकिया भी गीला था।

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