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27 श्रेष्ठ कहानियाँ

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2097
आईएसबीएन :1234567890

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स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ आरंभिक वर्षों की कहानियाँ

दो शब्द

स्थाधीनता के उपरान्त लिखी गई 27 श्रेष्ठ हिन्दी कहानियों का यह संग्रह प्रकाशित करते हए हमें विशेष सन्तोष और हर्ष का अनुभव हो रहा है। इस संग्रह में बाबू बृन्दावनमाल वर्मा (जिन्होंने इस सदी के प्रारम्भ में कहानी लिखना शुरू किया था) से लेकर नई पीढ़ी तक के लेखकों की कहानियां हैं, पर ये सब की सब कहानियां पिछले पांच वर्षों में ही लिखी गई हैं।

उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के प्रारम्भ में श्री किशोरीलाल गोस्वामी आदि ने बंगला कहानी से प्रेरणा लेकर कुछ किस्सानुमा कहानियां हिन्दी में लिखी थी। पर हमारी राय से हिन्दी के प्रथम वास्तविक कहानी लेखक श्री चकधर शर्मा गुलेरी थे, जिनकी 'उसने कहा था' शीर्षक कहानी हिन्दी में बहुत विख्यात है। हिन्दी कहानी के सौभाग्य से उसे अपने शैशव ही में प्रेमचन्द सी महान प्रतिभा प्राप्त हो गई। इससे एक लम्बी मंजिल वह कुछ ही वर्षों में पार कर गई। बीसवीं सदी की पहली दशाब्दी में (सन, 1907) प्रेमचन्द ने उर्दू में कहानी लिखना प्रारम्भ किया था, पर वास्तव में, विशेषतः हिन्दी कहानी की दृष्टि से, उनका काल दूसरी और तीसरी दशाब्दी गिना जाना चाहिए। प्रेमचन्द के हिन्दी में कहानी लिखना प्रारम्भ करने से कुछ ही समय पूर्व जयशंकर प्रसाद और चन्द्रधर शर्मा गुलेरी कहानियाँ लिख रहे थे। इस तरह इन तीनों को एक तरह से समकालीन भी कहा या सकता है।

हिन्दी कहानी की इष्टि से इस सदी की तीसरी और चौथी दशाब्दियां अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। दूसरी दशाब्दी (1921 से 1930) में विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक, सुदर्शन, चतुरसेन शास्त्री, शिवपूजन सहाय, राय कृष्णदास, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, उग्र आदि प्रतिमाएं भी हिन्दी कहानी को प्राप्त हुई, जिन्होंने हिन्दी कहानी को खूब समृद्ध किया। हमारी राय से बीसवीं सदी का चौथा दशक (1931 से 1940) हिन्दी कहानी का सर्वश्रेष्ठ काल था, जब पूर्वोक्त लेखकों के अतिरिक्त जैनेन्द्रकुमार, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, कमला चौधरी, विष्णु प्रभाकर, अश्क, उषादेवी मित्रा, सत्यवती मल्लिक, मन्मथनाथ गुप्त आदि हिन्दी कहानी में नए-नए तत्वों का समावेश करने लगे। इन दो दशकों में हिन्दी कहानी जैसे एक सदी की मंजिल पार कर गई। और हमारी धारणा है कि 1939 में हिन्दी कहानी बिश्व कहानी की तुलना में नगण्य नहीं रही थी। हिन्दी कहानी का स्थान यथेष्ट सम्माननीय हो गया था।

यह एफ आश्चर्य की बात है कि प्रथम महायुद्ध के साथ-साथ जिस हिन्दी कहानी में असाधारण जीवन और निखार आया था, वही हिन्दी कहानी दूसरे महायुद्ध से कुण्ठित होने लगी। सन् 1939 से 1950 तक के काल में एक स्पष्ट और लम्बा गत्यवरोध हिन्दी कहानी में दिखाई देता है। हमारे कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि उस युग में कहानियां लिखी ही नहीं गई (यद्यपि संख्या की दृष्टि से भी इस युग में अपेक्षाकृत कम कहानियां लिसी गईं), अपितु हमारी उक्त स्थापना का अभिप्राय यह है इस इस युग में हिन्दी कहानी का स्तर न सिर्फ ऊंचा नहीं हो पाया, बल्कि सब मिलाकर हिन्दी कहानी का स्तर कुछ गिर ही गया?

वर्तमान दशक में हिन्दी कहानी में फिर से गति विखाई देने लगी है। कितने ही श्रेष्ठ नए कहानी लेखक इस दशक में हिन्दी को उपलब्ध हुए हैं : मोहन राकेश, अमृत राय, रामकुमार, भीष्म साहनी, कृष्ण बलदेव वैद, राजेन्द्र यादव, कृष्णा सोबती, कमलेश्वर, शेखर जोशी, ओमप्रकाश श्रीवास्तव आदि। इन नए लेखकों से हिन्दी कहानी को निस्सन्देह नया बल मिला है। देश में जिस तरह सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं, उनका प्रभाव साहित्य के अन्य सभी अंशों के समान हिन्दी कहानी पर भी पड़ रहा है। परिणामत: हिन्दी कहानी का कल्पना क्षेत्र पहले की अपेक्षा अधिक विस्तृत होता चला जा रहा है।

यह पूछा आ सकता है कि विश्व कहानी की तुलना में हिन्दी कहानी की विशेषता क्या है अथवा उसकी विशेष उपलब्धियां क्या हैं? हम कहानी को पूरी तरह विश्ववनीन मानते हैं। हमारी राय से कहानी नामक यह साहित्यिक माध्यम अन्य सब माध्यमों से अधिक सार्वभौम है। एक अच्छी कहानी संसार की किसी भी भाषा में मनुवादित होकर संसार के किसी भी देश में अच्छी कहानी मानी जाएगी। जबकि साहित्य के अन्य माध्यमों के सम्बन्ध में यह बातें पूरी तरह लागू नहीं होतीं। इस तरह कहानी के क्षेत्र में किसी एक देश की उपलब्धि अन्य देशों की उपलध्यियों से विशेष भिन्न नहीं होने पाती। हां, कहानी में भी देशीय रंग, देशीय प्रभाव और देशीय वातावरण स्वभावत: पृथक पृथक होता है। हिन्दी कहानी में आज, शायद भारतीय परिस्थितियों के कारण, व्यंग्य, झुंझलाहट और कुछ अंश तक निराशाजनक कटुता भी दिखाई दे रही है, जबकि हिन्दी कहानी के उत्थान काल (1921 से 1940 तक) में वह आदर्शवाद, देश प्रेम और त्याग आदि की भावनाओं से अनुप्राणित थी। वह भी शायद परिस्थितियों का ही प्रभाव था। यहां हम यह स्पष्ट कर दें कि कहानी की श्रेष्ठता का माप उनका विषय नहीं है। श्रेष्ठता का माप विषय के निर्वाह पर अधिक निर्भर करता है। हमारी यह निश्चित धारणा है कि साहित्य का यह माध्यम प्राय: वहीं सफल और प्रमावशाली सिद्ध होता है, जहाँ
यह आधारभूत सत्यों और तत्वों को छूता है। अब सचाई यह है कि मानव हृदय के आधारभूत तत्व और वास्तविकताएं अच्छी-बुरी दोनों तरह की हैं। इससे इस बात का इतना महत्व नहीं रहता कि कहानी का विषय किस श्रेणी का है। पर यदि लेखक अपने को निस्संग नहीं रख पाया तो उसकी रचना कभी उच्चकोटि की नहीं हो सकेगी।

यह संग्रह वर्तमान हिन्दी कहानी का यथेष्ट प्रतिनिधित्व करता है। हिन्दी कहानी के प्राय: सभी प्रचलित रूप इस संग्रह में सम्मिलित हैं। ये सब कहानियां पिछले कुछ वर्षों में 'आजकल' में प्रकाशित हुई हैं। हमें विश्वास है कि हिन्दी में इस संग्रह का स्वागत होगा।

14 नवम्बर, 1959

चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

सम्पादक

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