लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (सुंदरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस (सुंदरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2089
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


विभीषण का भगवान श्रीरामजी की शरण के लिए प्रस्थान और शरण प्राप्ति



सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥

[इतना कहकर] विभीषण अपने मन्त्रियों को साथ लेकर आकाशमार्ग में गये और सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे-॥५॥

दो०- रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि॥४१॥

श्रीरामजी सत्यसंकल्प एवं [सर्वसमर्थ] प्रभु हैं और [हे रावण!] तुम्हारी सभा काल के वश है। अत: मैं अब श्रीरघुवीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष न देना॥४१॥

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी॥

ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गये (उनकी मृत्यु निश्चित हो गयी)। [शिवजी कहते हैं-] हे भवानी ! साधु का अपमान तुरंत ही सम्पूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है॥१॥

रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं।

रावणने जिस क्षण विभीषणको त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव (ऐश्वर्य) से हीन हो गया। विभीषणजी हर्षित होकर मनमें अनेकों मनोरथ करते हुए श्रीरघुनाथजीके पास चले॥२॥

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai