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श्रीरामचरितमानस (सुंदरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2089
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


रावण की सभा में हनुमानजी का रामगुणगान



बंदर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक के लिये (तमाशा देखनेके लिये) सब सभामें आये। हनुमानजी ने जाकर रावणकी सभा देखी। उसकी अत्यन्त प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती॥३॥

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥

देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं। (उसका रुख देख रहे हैं।) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमानजी के मनमें जरा भी डर नहीं हुआ। वे ऐसे निःशङ्क खड़े रहे, जैसे सर्पोके समूहमें गरुड़ निःशङ्क (निर्भय) रहते हैं।। ४॥

दो०- कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद॥२०॥

हनुमानजीको देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा। फिर पुत्र-वधका स्मरण किया तो उसके हृदयमें विषाद उत्पन्न हो गया॥२०॥

कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि के बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही॥

लङ्कापति रावणने कहा-रे वानर ! तू कौन है ? किसके बलपर तूने वनको उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे (मेरा नाम और यश) कानोंसे नहीं सुना? रे शठ! मैं तुझे अत्यन्त नि:शङ्क देख रहा हूँ॥१॥

मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कई बाधा।
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया॥

तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जानेका भय नहीं है ? [हनुमानजीने कहा-] हे रावण! सुन; जिनका बल पाकर माया सम्पूर्ण ब्रह्माण्डोंके समूहोंकी रचना करती है;॥२॥

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन॥

जिनके बलसे हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमश:) सृष्टिका सृजन, पालन और संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्त्रमुख (फणों) वाले शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्माण्ड को सिरपर धारण करते हैं;॥३॥

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥

जो देवताओं की रक्षा के लिये नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूल्को शिक्षा देनेवाले हैं, जिन्होंने शिवजीके कठोर धनुषको तोड़ डाला और उसीके साथ राजाओंके समूहका गर्व चूर्ण कर दिया॥४॥

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली।

जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिरां और बालिको मार डाला, जो सब-के-सब अतुलनीय बलवान् थे;॥५॥

दो०- जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥२१॥

जिनके लेशमात्र बलसे तुमने समस्त चराचर जगत्को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नीको तुम [चोरी से] हर लाये हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ॥२१॥

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥


मैं तुम्हारी प्रभुताको खूब जानता हूँ, सहस्रबाहुसे तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालिसे युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था। हनुमानजीके [मार्मिक] वचन सुनकर रावणने हँसकर बात टाल दी॥१॥

खायउँ फल प्रभु लागी मूंखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी॥


हे [राक्षसोंके] स्वामी! मुझे भूख लगी भी (इसलिये) मैंने फल खाये और वानर-स्वभावके कारण वृक्ष तोड़े। हे (निशाचरोंके) मालिक! देह सबको परम प्रिय है। कुमार्गपर चलनेवाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे॥ २॥

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥

तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा। उसपर तुम्हारे पुत्रने मुझको बाँध लिया। [किन्तु] मुझे अपने बाँधे जानेकी कुछ भी लज्जा नहीं है। मैं तो अपने प्रभुका कार्य किया चाहता हूँ॥३॥

बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥

हे रावण! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुलका विचार करके देखो और भ्रमको छोड़कर भक्तभयहारी भगवानको भजो॥ ४॥

जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै॥

जो देवता, राक्षस और समस्त चराचरको खा जाता है, वह काल भी जिनके डरसे अत्यन्त डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहनेसे जानकीजीको दे दो॥५॥

दो०-- प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥२२॥

खरके शत्रु श्रीरघुनाथजी शरणागतोंके रक्षक और दयाके समुद्र हैं। शरण जानेपर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरणमें रख लेंगे॥२२॥

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥

तुम श्रीरामजीके चरणकमलोंको हृदयमें धारण करो और लङ्काका अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्यजीका यश निर्मल चन्द्रमाके समान है। उस चन्द्रमामें तुम कलंक न बनो॥१॥

राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।

रामनाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोहको छोड़, विचारकर देखो। हे देवताओंके शत्रु! सब गहनोंसे सजी हुई सुन्दरी स्त्री भी कपड़ोंके बिना (नंगी) शोभा नहीं पाती॥२॥

राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥

रामविमुख पुरुषकी सम्पत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पानेके समान है। जिन नदियोंके मूलमें कोई जलस्रोत नहीं है (अर्थात् जिन्हें केवल बरसातका ही आसरा है) वे वर्षा बीत जानेपर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं॥३॥

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥

हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रामविमुखकी रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं है। हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्रीरामजीके साथ द्रोह करनेवाले तुमको नहीं बचा सकते॥४॥

दो०- मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥२३॥

मोह ही जिसका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देनेवाले, तमरूप अभिमानका त्याग कर दो और रघुकुलके स्वामी, कृपाके समुद्र भगवान श्रीरामचन्द्रजीका भजन करो॥ २३॥

जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥

यद्यपि हनुमानजीने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीतिसे सनी हुई बहुत ही हितकी वाणी कही, तो भी वह महान् अभिमानी रावण बहुत हँसकर (व्यंगसे) बोला कि हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला!॥१॥

मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥

रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गयी है। अधम! मुझे शिक्षा देने चला है। हनुमानजीने कहा-इससे उलटा ही होगा (अर्थात् मृत्यु तेरी निकट आयी है, मेरी नहीं)। यह तेरा मतिभ्रम (बुद्धिका फेर) है, मैंने प्रत्यक्ष जान लिया है॥२॥

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥

हनुमानजीके वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया और बोला-] अरे! इस मूर्खका प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौड़े। उसी समय मन्त्रियोंके साथ विभीषणजी वहाँ आ पहुँचे॥३॥

नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

उन्होंने सिर नवाकर और बहुत विनय करके रावणसे कहा कि दूतको मारना नहीं चाहिये, यह नीतिके विरुद्ध है। हे गोसाईं ! कोई दूसरा दण्ड दिया जाय। सबने कहा--भाई! यह सलाह उत्तम है॥ ४॥

सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर॥

यह सुनते ही रावण हँसकर बोला-अच्छा तो, बंदरको अंग-भंग करके भेज (लौटा) दिया जाय॥५॥

दो०- कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥२४॥

मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बंदर की ममता पूँछ पर होती है। अत: तेलमें कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फिर आग लगा दो॥ २४॥।

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कोन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥

जब बिना पूँछ का यह बंदर वहाँ (अपने स्वामीके पास) जायगा, तब यह मूर्ख अपने मालिकको साथ ले आयेगा। जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखू!॥१॥

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