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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

श्रीराम-दशरथ-संवाद, अवध-वासियों का विषाद, कैकेयी को समझाना



दो०- गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥४३॥


इतने में राजा की मूर्छा दूर हुई, उन्होंने रामका स्मरण करके ('राम-राम!' कहकर) फिरकर करवट ली। मन्त्री ने श्रीरामचन्द्रजी का आना कहकर समयानुकूल विनती की॥४३॥

अवनिप अकनि रामु पगु धारे।
धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे।
चरन परत नृप रामु निहारे॥


जब राजाने सुना कि श्रीरामचन्द्र पधारे हैं तो उन्होंने धीरज धरके नेत्र खोले। मन्त्रीने सँभालकर राजाको बैठाया। राजाने श्रीरामचन्द्रजीको अपने चरणोंमें पड़ते (प्रणाम करते) देखा॥१॥

लिए सनेह बिकल उर लाई।
गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू।
चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥


स्नेहसे विकल राजाने रामजीको हृदयसे लगा लिया। मानो साँपने अपनी खोयी हुई मणि फिर पा ली हो। राजा दशरथजी श्रीरामजीको देखते ही रह गये। उनके नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बह चली॥२॥

सोक बिबस कछु कहै न पारा।
हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं।
जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥

शोक के विशेष वश होनेके कारण राजा कुछ कह नहीं सकते। वे बार-बार श्रीरामचन्द्रजीको हृदयसे लगाते हैं और मनमें ब्रह्माजीको मनाते हैं कि जिससे श्रीरघुनाथजी वनको न जायँ।। ३॥

सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी।
बिनती सुनहु सदासिव मोरी।
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी।
आरति हरहु दीन जनु जानी॥

फिर महादेवजीका स्मरण करके उनसे निहोरा करते हुए कहते हैं-हे सदाशिव! आप मेरी विनती सुनिये। आप आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होनेवाले) और अवढरदानी (मुँहमाँगा दे डालनेवाले) हैं। अत: मुझे अपना दीन सेवक जानकर मेरे दुःखको दूर कीजिये॥ ४॥

दो०- तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
बचनु मोर तजि रहहिं घर परिहरि सीलु सनेहु॥४४॥


आप प्रेरकरूपसे सबके हृदयमें हैं। आप श्रीरामचन्द्रको ऐसी बुद्धि दीजिये जिससे वे मेरे वचनको त्यागकर और शील-स्नेहको छोड़कर घरहीमें रह जायें॥४४॥।

अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ।
नरक परौं बरु सुरपुरु जाऊ॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही।
लोचन ओट रामु जनि होंही।


जगत्में चाहे अपयश हो और सुयश नष्ट हो जाय। चाहे [नया पाप होनेसे] मैं नरकमें गिरूँ, अथवा स्वर्ग चला जाय (पूर्व पुण्योंके फलस्वरूप मिलनेवाला स्वर्ग चाहे मुझे न मिले)। और भी सब प्रकारके दुःसह दुःख आप मुझसे सहन करा लें। पर श्रीरामचन्द्र मेरी आँखोंकी ओट न हों॥१॥

अस मन गुनइ राउ नहिं बोला।
पीपर पात सरिस मनु डोला।
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी।
पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥


राजा मन-ही-मन इस प्रकार विचार कर रहे हैं, बोलते नहीं। उनका मन पीपलके पत्तेकी तरह डोल रहा है। श्रीरघुनाथजीने पिताको प्रेमके वश जानकर और यह अनुमान करके कि माता फिर कुछ कहेगी [तो पिताजीको दुःख होगा]-॥२॥

देस काल अवसर अनुसारी।
बोले बचन बिनीत बिचारी॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई।
अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥

देश, काल और अवसरके अनुकूल विचारकर विनीत वचन कहे-हे तात! मैं कुछ कहता हूँ, यह ढिठाई करता हूँ। इस अनौचित्यको मेरी बाल्यावस्था समझकर क्षमा कीजियेगा॥३॥

अति लघु बात लागि दुखु पावा।
काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता।
सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥


इस अत्यन्त तुच्छ बातके लिये आपने इतना दुःख पाया। मुझे किसीने पहले कहकर यह बात नहीं जनायो। स्वामी (आप) को इस दशामें देखकर मैंने मातासे पूछा। उनसे सारा प्रसंग सुनकर मेरे सब अंग शीतल हो गये (मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई)॥४॥
 
दो०- मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥४५॥


हे पिताजी ! इस मङ्गलके समय स्नेहवश होकर सोच करना छोड़ दीजिये और हृदयमें प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा दीजिये। यह कहते हुए प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सर्वाङ्ग पुलकित हो गये॥४५॥

धन्य जनमु जगतीतल तासू।
पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताकें।
प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥


[उन्होंने फिर कहा--] इस पृथ्वीतलपर उसका जन्म धन्य है जिसके चरित्र सुनकर पिताको परम आनन्द हो। जिसको माता-पिता प्राणोंके समान प्रिय हैं, चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) उसके करतलगत (मुट्ठीमें) रहते हैं॥१॥

आयसु पालि जनम फलु पाई।
ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी।
चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥


आपकी आज्ञा पालन करके और जन्मका फल पाकर मैं जल्दी ही लौट आऊँगा, अत: कृपया आज्ञा दीजिये। मातासे विदा माँग आता हूँ। फिर आपके पैर लगकर (प्रणाम करके) वनको चलूँगा॥२॥

अस कहि राम गवनु तब कीन्हा।
भूप सोक बस उतरु न दीन्हा॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी।
छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥


ऐसा कहकर तब श्रीरामचन्द्रजी वहाँसे चल दिये। राजाने शोकवश कोई उत्तर नहीं दिया। वह बहुत ही तीखी (अप्रिय) बात नगरभरमें इतनी जल्दी फैल गयी मानो डंक मारते ही बिच्छूका विष सारे शरीरमें चढ़ गया हो॥३॥

सुनि भए बिकल सकल नर नारी।
बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई।
बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥

इस बातको सुनकर सब स्त्री-पुरुष ऐसे व्याकुल हो गये जैसे दावानल (वनमें आग लगी) देखकर बेल और वृक्ष मुरझा जाते हैं। जो जहाँ सुनता है वह वहीं सिर धुनने (पीटने) लगता है ! बड़ा विषाद है, किसीको धीरज नहीं बँधता॥४॥

दो०- मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहिं सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥४६॥


सबके मुख सूखे जाते हैं, आँखों से आँसू बहते हैं, शोक हृदय में नहीं समाता। मानो करुणा रस की सेना अवधपर डंका बजाकर उतर आयी हो॥४६॥

मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी।
जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ।
छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥


सब मेल मिल गये थे (सब संयोग ठीक हो गये थे), इतनेमें ही विधाताने बातं बिगाड़ दी! जहाँ-तहाँ लोग कैकेयीको गाली दे रहे हैं ! इस पापिनको क्या सूझ पड़ा जो इसने छाये घरपर आग रख दी॥ १॥

निज कर नयन काढ़ि चह दीखा।
डारि सुधा बिषु चाहत चीखा।
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी।
भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥

यह अपने हाथसे अपनी आँखोंको निकालकर (आँखोंके बिना ही) देखना चाहती है, और अमृत फेंककर विष चखना चाहती है ! यह कुटिल, कठोर, दुर्बुद्धि और अभागिनी कैकेयी रघुवंशरूपी बाँसके वनके लिये अग्नि हो गयी!॥२॥

पालव बैठि पेड़ एहिं काटा।
सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा।
सदा रामु एहि प्रान समाना।
कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥


पत्तेपर बैठकर इसने पेड़को काट डाला। सुखमें शोकका ठाट ठटकर रख दिया! श्रीरामचन्द्रजी इसे सदा प्राणोंके समान प्रिय थे। फिर भी न जाने किस कारण इसने यह कुटिलता ठानी॥३॥

सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ।
सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई।
जानि न जाइ नारि गति भाई॥


कवि सत्य ही कहते हैं कि स्त्रीका स्वभाव सब प्रकारसे पकड़में न आने योग्य अथाह और भेदभरा होता है। अपनी परछाहीं भले ही पकड़ जाय, पर भाई! स्त्रियोंकी गति (चाल) नहीं जानी जाती॥ ४॥

दो०- काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥४७॥


आग क्या नहीं जला सकती! समुद्रमें क्या नहीं समा सकता! अबला कहानेवाली प्रबल स्त्री [जाति] क्या नहीं कर सकती! और जगत्में काल किसको नहीं खाता!॥४७॥

का सुनाइ बिधि काह सुनावा।
का देखाइ चह काह देखावा॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा।
बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥

विधाताने क्या सुनाकर क्या सुना दिया और क्या दिखाकर अब वह क्या दिखाना चाहता है! एक कहते हैं कि राजाने अच्छा नहीं किया, दुर्बुद्धि कैकेयीको विचारकर वर नहीं दिया,॥१॥

जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु।
अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥
एक धरम परमिति पहिचाने।
नृपहिं दोसु नहिं देहिं सयाने॥

जो हठ करके (कैकेयीकी बातको पूरा करनेमें अड़े रहकर) स्वयं सब दुःखोंके पात्र हो गये। स्त्रीके विशेष वश होनेके कारण मानो उनका ज्ञान और गुण जाता रहा। एक (दूसरे) जो धर्मकी मर्यादाको जानते हैं और सयाने हैं, वे राजाको दोष नहीं देते॥२॥

सिबि दधीचि हरिचंद कहानी।
एक एक सन कहहिं बखानी॥
एक भरत कर संमत कहहीं।
एक उदास भायँ सुनि रहहीं।


वे शिबि, दधीचि और हरिश्चन्द्रकी कथा एक दूसरेसे बखानकर कहते हैं। कोई एक इसमें भरतजीकी सम्मति बताते हैं। कोई एक सुनकर उदासीनभावसे रह जाते हैं (कुछ बोलते नहीं)॥ ३॥

कान मूदि कर रद गहि जीहा।
एक कहहिं यह बात अलीहा॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे।
रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥

कोई हाथोंसे कान मूंदकर और जीभको दाँतोंतले दबाकर कहते हैं कि यह बात झूठ है, ऐसी बात कहनेसे तुम्हारे पुण्य नष्ट हो जायेंगे। भरतजीको तो श्रीरामचन्द्रजी प्राणोंके समान प्यारे हैं॥४॥

दो०- चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
सपनेहुँ कबहुँन करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥४८॥


चन्द्रमा चाहे [शीतल किरणोंकी जगह] आगकी चिनगारियाँ बरसाने लगे और अमृत चाहे विषके समान हो जाय, परन्तु भरतजी स्वप्नमें भी कभी श्रीरामचन्द्रजीके विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे॥४८॥

एक बिधातहि दूषनु देहीं।
सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू।
दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥

कोई एक विधाताको दोष देते हैं, जिसने अमृत दिखाकर विष दे दिया। नगरभरमें खलबली मच गयी, सब किसीको सोच हो गया। हृदयमें दुःसह जलन हो गयी, आनन्द-उत्साह मिट गया॥१॥

बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी।
जे प्रिय परम कैकई केरी॥
लगीं देन सिख सीलु सराही।
बचन बानसम लागहिं ताही॥

ब्राह्मणों की स्त्रियाँ, कुलकी माननीय बड़ी-बूढ़ी और जो कैकेयी की परम प्रिय थीं, वे उसके शील की सराहना करके उसे सीख देने लगीं। पर उसको उनके वचन बाण के समान लगते हैं॥२॥

भरतु न मोहि प्रिय राम समाना।
सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥
करहु राम पर सहज सनेहू।
केहिं अपराध आजु बनु देहू॥

[वे कहती हैं-] तुम तो सदा कहा करती थीं कि श्रीरामचन्द्रके समान मुझको भरत भी प्यारे नहीं हैं; इस बातको सारा जगत् जानता है। श्रीरामचन्द्रजीपर तो तुम स्वाभाविक ही स्नेह करती रही हो। आज किस अपराधसे उन्हें वन देती हो?॥३॥

कबहुँ न कियहु सवति आरेसू।
प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा।
तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥


तुमने कभी सौतिया डाह नहीं किया। सारा देश तुम्हारे प्रेम और विश्वास को जानता है। अब कौसल्या ने तुम्हारा कौन-सा बिगाड़ कर दिया, जिसके कारण तुमने सारे नगरपर वज्र गिरा दिया।। ४॥

दो०- सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
राजु कि भूजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥४९॥

क्या सीताजी अपने पति (श्रीरामचन्द्रजी) का साथ छोड़ देंगी? क्या लक्ष्मणजी श्रीरामचन्द्रजीके बिना घर रह सकेंगे? क्या भरतजी श्रीरामचन्द्रजीके बिना अयोध्यापरीका राज्य भोग सकेंगे? और क्या राजा श्रीरामचन्द्रजीके बिना जीवित रह सकेंगे? (अर्थात् न सीताजी यहाँ रहेंगी, न लक्ष्मणजी रहेंगे, न भरतजी राज्य करेंगे और न राजा ही जीवित रहेंगे; सब उजाड़ हो जायगा)॥ ४९॥

अस बिचारि उर छाड़हु कोहू।
सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू।
कानन काह राम कर काजू॥


हृदयमें ऐसा विचारकर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलङ्ककी कोठी मत बनो। भरतको अवश्य युवराजपद दो, पर श्रीरामचन्द्रजीका वनमें क्या काम है !॥१॥

नाहिन रामु राज के भूखे।
धरम धुरीन बिषय रस रूखे।
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू।
नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥


श्रीरामचन्द्रजी राज्य के भूखे नहीं हैं। वे धर्म की धुरी को धारण करनेवाले और विषय-रस से रूखे हैं (अर्थात् उनमें विषयासक्ति है ही नहीं)। [इसलिये तुम यह शंका न करो कि श्रीरामजी वन न गये तो भरत के राज्य में विघ्न करेंगे; इतने पर भी मन न माने तो] तुम राजा से दूसरा ऐसा (यह) वर ले लो कि श्रीराम घर छोड़कर गुरुके घर रहें॥२॥

जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे।
नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई।
तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥


जो तुम हमारे कहने पर न चलोगी तो तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगेगा। यदि तुमने कुछ हँसी की हो तो उसे प्रकट में कहकर जना दो [कि मैंने दिल्लगी की है]॥३॥

राम सरिस सुत कानन जोगू।
काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई।
जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥

राम-सरीखा पुत्र क्या वनके योग्य है? यह सुनकर लोग तुम्हें क्या कहेंगे! जल्दी उठो और वही उपाय करो जिस उपायसे इस शोक और कलङ्कका नाश हो॥४॥

छं०- जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥


जिस तरह [नगरभरका] शोक और [तुम्हारा] कलङ्क मिटे, वही उपाय करके कुलकी रक्षा कर। वन जाते हुए श्रीरामजीको हठ करके लौटा ले, दूसरी कोई बात न चला। तुलसीदासजी कहते हैं-जैसे सूर्यके बिना दिन, प्राणके बिना शरीर और चन्द्रमाके बिना रात [निर्जीव तथा शोभाहीन हो जाती है], वैसे ही श्रीरामचन्द्रजीके बिना अयोध्या हो जायगी; हे भामिनी! तू अपने हृदयमें इस बातको समझ (विचारकर देख) तो सही।

सो०- सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥५०॥


इस प्रकार सखियोंने ऐसी सीख दी जो सुननेमें मीठी और परिणाममें हितकारी थी। पर कुटिला कुबरीकी सिखायी-पढ़ायी हुई कैकेयीने इसपर जरा भी कान नहीं दिया॥५०॥
 
उतरु न देइ दुसह रिस रूखी।
मृगिन्ह चितव जनु बाधिनि भूखी॥
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी।
चलीं कहत मतिमंद अभागी॥


कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती, वह दुःसह क्रोधके मारे रूखी (बेमुरव्वत) हो रही है। ऐसे देखती है मानो भूखी बाघिन हरिनियोंको देख रही हो। तब सखियोंने रोगको असाध्य समझकर उसे छोड़ दिया। सब उसको मन्दबुद्धि, अभागिनी कहती हुई चल दीं॥१॥

राजु करत यह दैों बिगोई।
कीन्हेसि अस जस करइ न कोई॥
एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारी।
देहिं कुचालिहि कोटिक गारी॥

राज्य करते हुए इस कैकेयीको दैवने नष्ट कर दिया। इसने जैसा कुछ किया, वैसा कोई भी न करेगा! नगरके सब स्त्री-पुरुष इस प्रकार विलाप कर रहे हैं और उस कुचाली कैकेयीको करोड़ों गालियाँ दे रहे हैं॥२॥

जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा।
कवनि राम बिनु जीवन आसा॥
बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी।
जनु जलचर गन सूखत पानी॥


लोग विषमज्वर (भयानक दुःखकी आग) से जल रहे हैं। लंबी साँसें लेते हुए वे कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रजीके बिना जीनेकी कौन आशा है। महान् वियोग [की आशंका] से प्रजा ऐसी व्याकुल हो गयी है मानो पानी सूखनेके समय जलचर जीवोंका समुदाय व्याकुल हो!॥३॥

अति बिषाद बस लोग लोगाईं।
गए मातु पहिं रामु गोसाईं।
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ।
मिटा सोचु जनि राखै राऊ।


सभी पुरुष और स्त्रियाँ अत्यन्त विषादके वश हो रहे हैं। स्वामी श्रीरामचन्द्रजी माता कौसल्याके पास गये। उनका मुख प्रसन्न है और चित्तमें चौगुना चाव (उत्साह) है। यह सोच मिट गया है कि राजा कहीं रख न लें। [श्रीरामजीको राजतिलककी बात सुनकर विषाद हुआ था कि सब भाइयोंको छोड़कर बड़े भाई मुझको ही राजतिलक क्यों होता है। अब माता कैकेयीकी आज्ञा और पिताकी मौन सम्मति पाकर वह सोच मिट गया।]॥ ४॥

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