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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2086
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

भरतजी द्वारा पादुका की स्थापना, नन्दिग्राम में निवास



सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि॥३२३॥


भरतजीने यह सुनकर और शिक्षा तथा बड़ा आशीर्वाद पाकर ज्योतिषियोंको बुलाया और दिन (अच्छा मुहूर्त) साधकर प्रभुकी चरणपादुकाओंको निर्विघ्नतापूर्वक सिंहासनपर विराजित कराया॥३२३॥

राम मातु गुर पद सिरु नाई।
प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥
नंदिगावँ करि परन कुटीरा।
कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा॥

फिर श्रीरामजीकी माता कौसल्याजी और गुरुजीके चरणोंमें सिर नवाकर और प्रभुकी चरणपादुकाओंकी आज्ञा पाकर धर्मकी धुरी धारण करने में धीर भरतजीने नन्दिग्राममें पर्णकुटी बनाकर उसीमें निवास किया॥१॥

जटाजूट सिर मुनिपट धारी।
महि खनि कुस साँथरी सँवारी॥
असन बसन बासन ब्रत नेमा।
करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा।

सिरपर जटाजूट और शरीरमें मुनियोंके [वल्कल] वस्त्र धारणकर, पृथ्वीको खोदकर उसके अंदर कुशकी आसनी बिछायी। भोजन, वस्त्र, बरतन, व्रत, नियम-- सभी बातोंमें वे ऋषियोंके कठिन धर्मका प्रेमसहित आचरण करने लगे॥२॥

भूषन बसन भोग सुख भूरी।
मन तन बचन तजे तिन तूरी॥
अवध राजु सुर राजु सिहाई।
दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई॥


गहने-कपड़े और अनेकों प्रकारके भोग-सुखोंको मन, तन और वचनसे तृण तोड़कर (प्रतिज्ञा करके) त्याग दिया। जिस अयोध्याके राज्यको देवराज इन्द्र सिहाते थे और [जहाँके राजा दशरथजीको सम्पत्ति सुनकर कुबेर भी लजा जाते थे, ॥३॥

तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा।
चंचरीक जिमि चंपक बागा॥
रमा बिलासु राम अनुरागी।
तजत बमन जिमि जन बड़भागी॥


उसी अयोध्यापुरीमें भरतजी अनासक्त होकर इस प्रकार निवास कर रहे हैं जैसे चम्पाके बागमें भौंरा। श्रीरामचन्द्रजीके प्रेमी बड़भागी पुरुष लक्ष्मीके विलास [भोगैश्वर्य] को वमनकी भाँति त्याग देते हैं (फिर उसकी ओर ताकते भी नहीं)॥४॥

राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति॥३२४॥

फिर भरतजी तो [स्वयं] श्रीरामचन्द्रजीके प्रेमके पात्र हैं। वे इस (भौगैश्वर्यत्यागरूप) करनीसे बड़े नहीं हुए (अर्थात् उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है)। [पृथ्वीपरका जल न पीनेकी] टेकसे चातककी और नीर-क्षीर-विवेककी विभूति (शक्ति) से हंसकी भी सराहना होती है ॥३२४॥

देह दिनहुँ दिन दूबरि होई।
घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई॥
नित नव राम प्रेम पनु पीना।
बढ़त धरम दलु मनु न मलीना॥

भरतजीका शरीर दिनोंदिन दुबला होता जाता है। तेज (अन्न, घृत आदिसे उत्पन्न होनेवाला मेद*) घट रहा है। बल और मुखछबि (मुखकी कान्ति अथवा शोभा) वैसी ही बनी हुई है। रामप्रेमका प्रण नित्य नया और पुष्ट होता है, धर्मका दल बढ़ता है और मन उदास नहीं है (अर्थात् प्रसन्न है)॥१॥

संस्कृत कोष में 'तेज' का अर्थ मेद मिलता है और यह अर्थ लेने से 'घटइ' के अर्थ में भी किसी प्रकारकी खींच-तान नहीं करनी पड़ती।

जिमि जल निघटत सरद प्रकासे।
बिलसत बेतस बनज बिकासे॥
सम दम संजम नियम उपासा।
नखत भरत हिय बिमल अकासा॥

जैसे शरद्-ऋतुके प्रकाश (विकास) से जल घटता है किन्तु बेंत शोभा पाते हैं और कमल विकसित होते हैं। शम, दम, संयम, नियम और उपवास आदि भरतजीके हृदयरूपी निर्मल आकाशके नक्षत्र (तारागण) हैं॥२॥

ध्रुव बिस्वासु अवधि राका सी।
स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी॥
राम पेम बिधु अचल अदोषा।
सहित समाज सोह नित चोखा॥

विश्वास ही [उस आकाशमें ] ध्रुवतारा है, चौदह वर्षकी अवधि [का ध्यान] पूर्णिमाके समान है और स्वामी श्रीरामजीकी सुरति (स्मृति) आकाशगङ्गा-सरीखी प्रकाशित है। रामप्रेम ही अचल (सदा रहनेवाला) और कलङ्करहित चन्द्रमा है। वह अपने समाज (नक्षत्रों) सहित नित्य सुन्दर सुशोभित है ॥३॥

भरत रहनि समुझनि करतूती।
भगति बिरति गुन बिमल बिभूती॥
बरनत सकल सुकबि सकुचाहीं।
सेस गनेस गिरा गमु नाहीं॥

भरतजी की रहनी, समझ, करनी, भक्ति, वैराग्य, निर्मल गुण और ऐश्वर्यका वर्णन करनेमें सभी सुकवि सकुचाते हैं; क्योंकि वहाँ [औरोंकी तो बात ही क्या] स्वयं शेष, गणेश और सरस्वतीकी भी पहुँच नहीं है॥४॥

नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति।
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति।। ३२५॥

वे नित्यप्रति प्रभुकी पादुकाओंका पूजन करते हैं, हृदयमें प्रेम समाता नहीं है। पादुकाओंसे आज्ञा माँग-माँगकर वे बहुत प्रकार (सब प्रकारके) राज-काज करते हैं ॥ ३२५ ॥

पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू।
जीह नामु जप लोचन नीरू॥
लखन राम सिय कानन बसहीं।
भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं।

शरीर पुलकित है, हृदयमें श्रीसीता-रामजी हैं। जीभ राम-नाम जप रही है, नेत्रों में प्रेमका जल भरा है। लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और सीताजी तो वनमें बसते हैं, परन्तु भरतजी घरहीमें रहकर तपके द्वारा शरीरको कस रहे हैं ॥१॥

दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू।
सब बिधि भरत सराहन जोगू।
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं।
देखि दसा मुनिराज लजाहीं।

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